महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 36 श्लोक 47-63
षट्-त्रिंश(36) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
सुख-दु:ख, उत्पत्ति-विनाश, लाभ-हानि और जीवन-मरण- ये क्रमश: सबको प्राप्त होते हैं; इसलिये धीर पुरूष को इनके लिये हर्ष और शोक नहीं करना चाहिये। ये छ: इन्द्रियां बहुत ही चञ्चल हैं; इनमें से जो-जो इन्द्रिय जिस-जिस विषय की ओर बढ़ती है, वहां-वहां बुद्धि उसी प्रकार क्षीण होती है, जैसे फूटे घडे़ से पानी सदा चू जाता है।
धृतराष्ट्र ने कहा- विदुर! सूक्ष्म धर्म से बंधे हुए, शिखा से सुशोभित होने वाले राजा युधिष्ठिर के साथ मैंने मिथ्या व्यवहार किया हैं; अत: वे युद्ध करके मेरे मूर्ख पुत्रों का नाश कर डाले्ंगे। महामते! यह सब कुछ सदा ही भय से उद्विग्न है, मेरा यह मन भी भय से उद्विग्न है; इसलिये जो उद्वेगशून्य और शान्त पद (मार्ग) हो, वही मुझे बताओ।
विदुरजी बोले- पापशून्य नरेश! विद्या, तप, इन्द्रिय-निग्रह और लोभ त्याग के सिवा और कोई आपके लिये शान्ति-का उपाय मैं नहीं देखता। बुद्धि से मनुष्य अपने भय को दूर करता है, तपस्या से महत्पद को प्राप्त होता है, गुरूशुश्रूषा से ज्ञान और योग से शान्ति पाता है। मोक्ष की इच्छा रखने वाले मनुष्य दान के पुण्य का आश्रय नहीं लेते, वेद के पुण्य का भी आश्रय नहीं लेते; किंतु निष्काम-भाव से राग-द्वेष से रहित हो इस लोक में विचरते रहते हैं। सम्यक अध्ययन, न्यायोचित युद्ध, पुण्यकर्म और अच्छी तरह की हुई तपस्या के अन्त में सुख की वृद्धि होती है। राजन्! आपस में फूट रखने वाले लोग अच्छे बिछौनों से युक्त पलंग पाकर भी कभी सुख की नींद नहीं सोने पाते; उन्हें स्त्रियों के पास रहकर तथा सूत-मागधोद्वारा की हुई स्तुति सुनकर भी प्रसन्नता नहीं होती। जो परस्पर भेदभाव रखते हैं, वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते। वे सुख भी नहीं पाते। उन्हें गौरव नहीं प्राप्त होता तथा उन्हें शांति की वार्ता भी नहीं सुहाती। हित की बात भी कही जाय तो उन्हें अच्छी नहीं लगती। उनके योगक्षेम की भी सिद्धि नहीं हो पाती। राजन्! भेदभाववाले पुरूषों की विनाश के सिवा और कोई गति नहीं है। जैसे गौओं से दूध, ब्राह्मण में तप और युवती स्त्रियों में चञ्चलता का होना अधिक सम्भव है, उसी प्रकार अपने जातिबन्धुओं से भय होना भी सम्भव ही है। नित्य सींचकरबढ़ायी हुई पतली लताएं बहुत होने के कारण वर्षों तक नाना प्रकार के झोंके सहती हैं; यही बात स्तपुरूषों के विषय में भी समझनी चाहिये (वे दुर्बल होनेपर भी सामूहिक शक्ति से बलवान् हो जाते है)। भरतश्रेष्ठ धृतराष्ट्र! जलती हुई लकड़ियां अलग-अलग होनेपर धुआं फेंकती हैं और एक साथ होने पर प्रज्वलित हो उठती हैं। इसी प्रकार जातिबंधु भी (आपसमें) फूट होनेपर दु:ख उठाते और एकता होनेपर सुखी रहते हैं। धृतराष्ट्र! जो लोग ब्राह्मणों, स्त्रियों, जातिवालों और गौओं-पर ही शूरता प्रकट करते हैं, वे डंठलसे पके हुए फलों की भांति नीचे गिरते हैं। यदि वृक्ष अकेला है तो वह बलवान्, दृढ़मूल तथा बहुत बड़ा होने पर भी एक ही क्षण में आंधी के द्वारा बलपूर्वक शाखाओंसहित धराशायी किया जा सकता है। किंतु जो बहुत-से वृक्ष एक साथ रहकर समूह के रूप में खड़े हैं, वे एक-दूसरेके सहारे बड़ी-से-बड़ी आंधी को भी सह सकते हैं।
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