महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 40 श्लोक 1-16

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चत्‍वारिंश (40) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: चत्‍वारिंश अधयाय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

धर्म की महत्‍ता का प्रतिपादन तथा ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के धर्म का संक्षिप्‍त वर्णन

विदुरजी कहते हैं-राजन्! जो सज्‍जन पुरूषों से आदर पाकर आसक्तिरहित हो अपनी शक्ति के अनुसार (न्‍यायपूर्वक) अर्थ-साधन करता रहता है, उस श्रेष्‍ठ पुरूष को शीघ्र ही सुयश की प्राप्ति होती है; क्‍योंकि संत जिसपर प्रसन्‍न होते हैं,वह सदा सुखी रहता है। जो अधर्म से उपार्जित महान् धनराशि को भी उसकी ओर आकृष्‍ट हुए बिना ही त्‍याग देता है, वह जैसे सांप अपनी पुरानी केंचुल को छोड़ता है, उसी प्रकार दु:खों से मुक्‍त हो सुखपूर्वक शयन करता है। झूठ बोलकर उन्‍नति करना, राजा के पासतक चुगली करना, गुरूजनपर भी झूठा दोषारोपण करने का आग्रह करना-ये तीन कार्य ब्रह्महत्‍या के समान हैं। गुणों में दोष देखना एकदम मूत्‍यु के समान है, निंदा करना लक्ष्‍मी का वध है तथा सेवा का अभाव, उतावलापन और आत्‍मप्रशंसा-ये तीन विद्या के शत्रु हैं। आलस्‍य, मद-मोह, चञ्चलता, गोष्‍टी, उद्दण्‍डता, अभिमान और स्‍वार्थत्‍याग का अभाव-ये सात विद्यार्थियों के लिये सदा ही दोष माने गये हैं। सुख चाहनेवाले को विद्या कहां से मिले ? विद्या चा‍हने-वाले के लिये सुख नहीं है; सुखकी चाह हो तो विद्याको छोड़े और विद्या चाहे तो सुख का त्‍याग करे। ईधन से आग की, नदियों से समुद्र की, समस्‍त प्राणियों से मूत्‍यु की और पुरूषों से कुलटा स्‍त्री की कभी तृप्ति नहीं होती। आशा धैर्य को, यमराज समृद्धि को, क्रोध लक्ष्‍मी को, कृपणता यशको और सार-संभाल का अभाव पशुओं को नष्‍ट कर देता है, परंतु राजन्! ब्राह्मण यदि अकेला ही क्रुद्ध हो जाय तो सम्‍पूर्ण राष्‍ट्र का नाश कर देता है। बकरियां, कांसे का पात्र, चांदी, मधु, धनुष, पक्षी,वेदवेत्‍ता ब्राह्मण, बूढ़ा कुटम्‍बी और विपत्तिग्रस्‍त कुलीन पुरूष-ये सब आपके घर में सदा मौजूद रहें। भारत! मनुजीने कहा है कि देवता, ब्राह्मण तथा अतिथियों की पूजा के लिये बकरी, बैल, चंदन, वीणा, दर्पण, मधु, घी, जल, तांबे के बर्तन, शङ्ग, शालग्राम और गोगेचन-ये सब वस्‍तुएं घरपर रखनी चाहिये। तात! अब मैं तुम्‍हें यह बहुत ही महत्‍त्‍वपूर्ण एवं सर्वोपरि पुण्‍यजनक बात बता रहा हूं-कामना से, भय से, लोभ से तथा इस जीवन के लिये भी कभी धर्म का त्‍याग न करे। धर्म नित्‍य है, किंतु सुख-दु:ख अनित्‍य है। जीव नित्‍य है, पर इसका कारण अनित्‍य है। आप अनित्‍य को छोड़कर नित्‍य में स्थित होइये और संतोष धारण कीजिये; क्‍योंकि संतोष ही सबसे बड़ा लाभ ह। धन-धान्‍यादि से परिपूर्ण पृथ्‍वीका शासन करके अंत में समस्‍त राज्‍य और विपुल भोगों को यही छोड़कर यमराज के वश में गये हुए बड़े-बड़े बलवान् एवं महानुभाव राजाओं की ओर दृष्टिडालिये। राजन्! जिसको बड़े कष्‍ट से पाला-पोसा था, वही पुत्र जब मर जाता है, तब मनुष्‍य उसे उठाकर तुरंत अपने घर से बाहर कर देते हैं। पहले तो उसके लिये बाल छितराये करूणा भरे स्‍वर में विलाप करते हैं, फिर साधारण काठ की भांति उसे जलती चिता में झोंक देते है। मरे हुए मनुष्‍य का धन दूसरे लोग भोगते हैं, उसके शरीर की धातुओं को पक्षी खाते हैं या आग जलाती है। यह मनुष्‍य पुण्‍य-पाप से बंधा हुआ इन्‍हीं दोनों के साथ परलोक में गमन करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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