महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 43 श्लोक 56-63
त्रिचत्वारिंश (43) अधयाय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)
मैं तो उसी को ब्रह्मण समझता हूं, जो परमात्मा के तत्त्व को जानने वाला और वेदों की यथार्थ व्याख्या करने वाला हो, जिसके अपने संदेह मिट गये हों और जो दूसरों के भी सम्पूर्ण संशयों को मिटा सके। इस आत्मा की खोज करने के लिये पूर्व, दक्षिण, पश्चिम या उत्तर की ओर जाने की आवश्यकता नहीं हैं; फिर आग्नेय आदि कोणों की तो बात ही क्या है? इसी प्रकार दिग्विभाग से रहित प्रदेश में भी उसे नहीं ढ़ुढ़ना चाहिये। आत्मा का अनुसंधान अनात्मपदार्थों में तो किसी तरह करे ही नहीं, वेद के वाक्यों में भी न ढ़ूढ़कर केवल तप के द्वारा उस प्रभु का साक्षात्कार करे। वागादि इन्द्रियों की सब प्रकार की चेष्टा से रहित होकर परमात्मा की उपासना करे, मन से भी कोई चेष्टा न करे। राजन्! तुम भी अपने हृदयाकाश में स्थित उस विख्यात परमेश्र्वर की बुद्धिपूर्वक उपासना करे। मौन रहने अथवा जंगल में निवास करने मात्र से कोई मुनि नहीं होता। जो अपने आत्मा के स्वरूप को जानता है, वही श्रेष्ठ मुनि कहलाता है। सम्पूर्ण अर्थों को व्याकृत (प्रकट) करने के कारण ज्ञानी पुरूष ‘वैयाकरण’कहलाता है। यह समस्त अर्थों का प्रकटीकरण मूलभूत ब्रह्म से ही होता है, अत: वही मुख्य वैयाकरण है; विद्वान् पुरूष भी इसी प्रकार अर्थों को व्याकृत (व्यक्त) करता है, इसलिये वह भी वैयाकरण है। जो (योगी) सम्पूर्ण लोकों को प्रत्यक्ष देख लेता है, वह मनुष्य उन सब लोकों का द्रष्टा कहलाता है; परंतु जो एकमात्र सत्यस्वरूप ब्रह्म में ही स्थित है, वही ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण सर्वश होता है ।।६२।। राजन्! पूर्वोक्त धर्म आदि में स्थित होने से तथा वेदों का क्रम से (विधिवत्) अध्ययन करने से भी मनुष्य इसी प्रकार परमात्मा का साक्षात्कार करता है। यह बात अपनी बुद्धिद्वारा निश्चय करके मैं तुम्हें बता रहा हूं।
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