महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 43 श्लोक 46-55

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त्रिचत्‍वारिंश (43) अध्याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 46-55 का हिन्दी अनुवाद

किसी का यज्ञ मन से, किसी का वाणी से तथा किसी का क्रिया के द्वारा सम्पादित होता है। सत्यसंकल्प पुरूष संकल्प के अनुसार ही लोकों को प्राप्त होता है। किंतु जब तक संकल्प सिद्ध न हो, तब तक दीक्षित व्रत का आचरण अर्थात् यज्ञादि कर्म करते रहना चाहिये। यह [१] दीक्षित नाम ‘दीक्ष व्रतादेशे’ इस धातु से बना है। सत्पुरूषों के सत्यस्वरूप परमात्मा ही सबसे बढ़कर है। क्योंकि परमात्मा के ज्ञान का फल प्रत्यक्ष है और तप का फल परोक्ष है (इसलिये ज्ञान का ही आश्रय लेना चाहिये)। बहुत पढ़ने वाले ब्राह्मण को केवल बहुपाठी (बहुज्ञ) समझना चाहिये। इसलिये महाराज! केवल बातें बनाने से ही किसी को ब्राह्मण न मान लेना। जो सत्यस्वरूप परमात्मा से कभी पृथक् नहीं होता, उसी को तुम ब्राह्मण समझों। राजन्! अथर्वा मुनि एवं महर्षिसमुदाय ने पूर्वकाल में जिनका गान किया है, वे ही छन्द (वेद) हैं। किंतु सम्पूर्ण वेद पढ़ लेने पर भी जो वेदों के द्वारा जानने योग्य परमात्मा के तत्त्व को नहीं जानते, वे वास्तव में वेद के विद्वान् नहीं हैं। नरश्रेष्‍ठ! छन्द (वेद) उस परमात्मा में स्वच्छन्द सम्बन्ध से स्थित (स्वत:प्रमाण) हैं। इसलिये उनका अध्‍ययन करके ही वेदवेत्ता आर्यजन वेद्यरूप परमात्मा के तत्त्व को प्राप्त हुए हैं।
राजन्! वास्तव में वेद के तत्त्व को जानने वाला कोई नहीं है अथवा यों समझों कि कोई बिरला ही उनका रहस्य जान पाता है। जो केवल वेद के वाक्यों को जानता, वह वेदों के द्वारा जानने योग्य परमात्मा को नहीं जानता; किंतु जो सत्य में स्थित है, वह वेदवेद्य परमात्मा को जानता है। जानने वालों में से कोई भी वेदों को अर्थात् उनके रहस्य को जानने वाला नहीं है; क्योंकि जानने में आने वाले मन-बुद्धि आदि के द्वारा न तो कोई वेद के रहस्य को जान पाता है और न जानने योग्य परमात्मत तत्त्व को ही। जो मनुष्‍य केवल कर्म-विधायक वेद को जानता है; वह तो बुद्धि द्वारा जानने में आने वाले पदार्थों को ही जानता है; किंतु जो बुद्धि द्वारा जानने योग्य पदार्थों को जानता है, वह (सकामी पुरूष) वास्तविक तत्त्व परब्रह्म परमात्मा को नहीं जानता। जो महापुरूष वेदों के रहस्य को जानता है, वह अपने योग्य परमात्मा को भी जानता है; परंतु उस (जानने वाले) को न तो वेदों के शब्दों को जानने वाला जानता हैं और न वेद ही जानते हैं। तथापि वेद के रहस्य को जानने वाले जो ब्रह्मवेत्ता महापुरूष है, वे उस वेद के द्वारा ही वेद के रहस्य को जान लेते हैं (अर्थात् वेदों का कथन इतना गुप्त है कि केवल शब्दज्ञान से उसका रहस्य एवं उसमें वर्णित परमात्मा तत्त्व समझ में नही आता। अन्त:करण शुद्ध होने पर सद्गुरू या प्रभु की कृपा से ही साधक उसे समझ पाता है)। द्वितीया के चन्द्रमा की सूक्ष्‍म कला को बताने के लिये जैसे वृक्षा की शाखा की ओर संकेत किया जाता है, उसी प्रकार उस सत्य स्वरूप परमात्मा का ज्ञान कराने के लिये ही वेदों का भी उपयोग किया जाता है; ऐसा विद्वान् पुरूष मानते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिन्होंने ॠगादि वेदों का अध्‍ययन नही किया है, वे अनृच कहलाते है।

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