महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 34 श्लोक 70-86
चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
पापाचारी दुष्टों का त्याग न करके उनके साथ मिले रहने से निरपराध सज्जनों को भी उन (पापियों) के समान ही दण्ड़ प्राप्त होता है, जैसे सुखी लकड़ी में मिल जाने से गीली भी जल जाती है; इसलिये दुष्ट पुरूषों के साथ कभी मेल न करें। जो पांच विषयों की ओर दौड़ने वाले अपने पांच इन्द्रिय-रूपी शत्रुओं को मोह के कारण वश में नहीं करता, उस मनुष्य-को विपत्ति ग्रस लेती है। गुणों में दोष न देखना, सरलता, पवित्रता, संतोष, प्रिय वचन बोलना, इन्द्रियदमन, सत्यभाषण तथा सरलता- ये गुण दुरात्मा पुरूषों में नहीं होते। भारत! आत्माज्ञान, अक्रोध, सहनशीलता, धर्मपरायणता, वचन की रक्षा तथा दान- ये गुण अधम पुरूषों में नहीं होते। मूर्ख मनुष्य विद्वानों को गाली और निन्दा से कष्ट पहुंचाते हैं। गाली देने वाला पाप का भागी होता है और क्षमा करने-वाला पाप से मुक्त हो जाता है। दुष्ट पुरूषों का बल है हिंसा, राजाओं का बल है दण्ड देना, स्त्रियों का बल है सेवा और गुणवानों का बल है क्षमा। राजन्! वाणी का पूर्ण संयम तो बहुत कठिन माना ही गया है; परंतु विशेष अर्थयुक्त और चमत्कारपूर्ण वाणी भी अधिक नहीं बोली जा सकती (इसलिये अत्यन्त दुष्कर होने पर भी वाणी का संयम करना ही उचित है)। राजन्! मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है; किंतु वही यदि कटु शब्दों में कही जाय तो महान् अनर्थ का कारण बन जाती है। बाणों से बिंद्या हुआ तथा फरसे से काटा हुआ बन भी अकुंरित हो जाता है; किंतु कटु वचन कहकर वाणी से किया हुआ भयानक घाव नहीं भरता। कर्णि, नालीक और नाराच नामक बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं, परंतु कटु वचनरूपी बाण नहीं निकाला जा सकता; क्योंकि वह हृदय के भीतर धंस जाता है। कटु वचनरूपी बाण मुख से निकलकर दूसरों के मर्मस्थान पर ही चोट करते है; उनसे आहत मनुष्य रात-दिन घुलता रहता है। अत: विद्वान् पुरूष दूसरों पर उनका प्रयोग न करें। देवता लोग जिसे पराजय देते है; उसकी बुद्धि को पहले ही हर लेते है; इससे वह नीच कर्मों पर ही अधिक दृष्टि रखता है। विनाशकाल उपस्थित होने पर बुद्धि मलिन हो जाती है; फिर तो न्याय के समान प्रतीत होने वाला अन्याय हृदय से बाहर नहीं निकलता। भरतश्रेष्ठ! आपके पुत्रों की वह बुद्धि पाण्डवों के प्रति विरोध से व्याप्त हो गयी है; आप उन्हें पहचान नहीं रहे हैं। महाराज घृतराष्ट्र! जो राजलक्षणों से सम्पन्न होने के कारण त्रिभुवन का भी राजा हो सकता है, वह आपका आज्ञाकारी युधिष्ठिर ही इस पृथ्वी का शासक होने योग्य है। वह धर्म तथा अर्थ के तत्त्व को जानने वाला, तेज और बुद्धि से युक्त, पूर्ण सौभाग्यशाली तथा आपके सभी पुत्रों से बढ़-चढ़कर है। राजेन्द्र! धर्मधारियों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर दया, सौम्यभाव तथा आपके प्रति गौरव-बुद्धि के कारण बहुत कष्ट सह रहा है।
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