महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 66 श्लोक 1-15

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षट्षष्टितम (66) अध्याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

संजय का धृतराष्‍ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय! दुर्योधन से ऐसा कहकर परम बुद्धिमान् महाभाग धृतराष्‍ट्र ने संजय से पुन: प्रश्‍न किया। ‘संजय! बताओ, भगवान् श्रीकृष्‍ण के पश्र्चात् अर्जुन ने जो अंतिम संदेश दिया था, उसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल हो रहा है’।

संजय ने कहा-महाराज! वसुदेवनंदन श्रीकृष्‍ण की बात सुनकर दुर्धर्ष वीर कुंतीकुमार अर्जुन ने उनके सुनते-सुनते यह समयोचित बात कही -। ‘संजय! तुम शांतनुनंदन पितामह भीष्‍म, राजा धृतराष्‍ट्र, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य, कण्र, महाराज बाह्लीक, अश्र्वत्‍थामा, सोमदत्‍त, सुबलपुत्र शकुनि, दु:शासन, शल, पुरूमित्र, विविंशति, विकर्ण, चित्रसे, राजा जयत्‍सेन, अवंती के राजकुमार विन्‍द और अनुविंद, कौरवयोद्धा दुर्मुख, सिंधुराज जयद्रथ, दु:सह, भूरिश्रवा, राजा भगदत्‍त, भूपाल जलसंध तथा अन्‍य जो-जो नरेश कौरवों को प्रिय करने के लिये युद्ध के उद्देश्‍य से वहां एकत्र हुए हैं, जिनकी मूत्‍यु बहुत ही निकट है, जिन्‍हें दुर्योधन ने पाण्‍डवरूपी प्रज्‍वलित अग्नि में होम के लिये बुलाया है, उन सबसे मिलकर मेरी ओर से यथायोग्‍य प्रणाम आदि कहकर उनका कुश्‍ल-मङ्गल पूछना। संजय! तत्‍पश्र्चात् उन राजाओं के समुदाय में ही पापात्‍माओं में प्रधान, असहिष्‍णु, दुर्बुद्धि, पापाचारी और अत्‍यंत लोभी राजकुमार दुर्योधन और उसके मन्त्रियों को मेरी कही हुई ये सारी बातें सुनाना’। इस प्रकार मुझे हस्तिनापुर जाने की अनुमति देकर, जिनके विशाल नेत्रों का कोना कुछ लाल रंग का है, उन परम बुद्धिमान् कुंतीकुमार अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्‍ण की ओर देखकर यह धर्म ओर अर्थ से युक्‍त वचन कहा-। ‘संजय! मधुवंश के प्रमुख वीर महात्मा श्रीकृष्‍ण ने एका‍ग्रचित्त होकर जो बात कही है और तुमने इसे जैसा सुना है, वह सब ज्यों-का-त्यों सुना देना। फिर समस्त समागत भूपालों की मण्‍डली में मेरी यह बात कहना-। ‘राजाओें! महान् युद्धरपी यज्ञ में जहां बाणों के टकराने से पैदा होने वाली आग का धुआं फैलता रहता है, रथों की घर्धराहट ही वेदमन्त्रों की ध्‍वनि का काम देती है, (शास्त्रबल से सम्पादित होनेव वाले यज्ञ की भांति) अस्त्रबल से ही फैलने वाले धनुषरूपी स्त्रुवा के द्वारा मुझे जिस प्रकार कौरवसैन्यरूपी हविष्‍य की आहुति न देनी पडे़, उसके लिये तुम सब लोग सादर प्रयत्न करों । ‘यदि तुम लोग शत्रुघाती महाराज युधिष्ठिर का अपना अभीष्‍ट राज्यभाग नहीं लौटाओंगे तो मैं तुम्हें अपने तीखें बाणों द्वारा घोडे़, पैदल तथा हाथी सवारों सहित यमलोक की अमङ्गलमयी दिशा में भेज दूंगा’। देवताओं के समान तेजस्वी महाराज! इसके बाद मैं अर्जुन से विदा ले चतुर्भुज भगवान् श्रीकृष्‍ण को नमस्कार करके उनका वह महत्त्वपूर्ण संदेश आपके पास पहुंचाने के लिये बडे़ वेग से तुरंत यहां चला आया हूं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत यानसंधिपर्व में संजयवाक्यविषयक छाछठवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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