महाभारत वन पर्व अध्याय 173 श्लोक 43-65

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त्रिसप्तत्यधिशततम (173) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रिसप्तत्यधिशततम अध्‍याय: श्लोक 43-65 का हिन्दी अनुवाद

शत्रुदमन नरेश ! लपलपाती जीभवाले बड़े-बड़े नाग उन दिव्य पुरूषके लिये चीन ( वस्त्र ) बने हुए थे। भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले उन महादेवजीने सर्पोंका ही यज्ञोपवित धारण कर रखा था। उनके दर्शनसे मेरा सारा भय जाता रहा। भरतश्रेष्ठ ! फिर तो मैंने उस भयंकर एवं सनातन पाशुपतास्त्रोंको गाण्डीव धनुषपर संयोजि करके अमित तेजस्वी त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकरको नमस्कार किया और उन दानवेन्द्रोके विनाशके लिये उनपर चला दिया। उस अस्त्रके छूटते ही उससे सहस्त्रों रूप प्रकट हो गये। महाराज ! मृग, सिंह, व्याघ्र, रीछ, भैंस, नाग, गौ, शरभ, हाथी, वानर, बैल, सूअर, बिलाव, भेडिये, प्रेत, भुरूण्ड़, गिद्ध, गरूड़ चमरी गाय, देवता, ऋर्षि, गन्धर्व, पिशाच, यक्ष, देवद्रोही राक्षस, गुह्यक, निशाचर, मत्स्य, गजमुख, उल्लू, मीन तथा अश्व जैसे रूपवाले नाना प्रकारके जीवोका प्रादुर्भाव हुआ। उन सबके हाथमें भांति-भांतिके अस्त्र-शस्त्र एवं खंग थे। इसी प्रकार गदा और मुद्रर धारण किये बहुतसे यातुधान भी प्रकट हुए। इन सबके साथ दूसरे भी बहुतसे जीवोंका प्राकटय हुआ, जिन्होंने नाना प्रकारके रूपधारण कर रखे थे। पाशुपतास्त्र प्रयोग होते ही कोई तीन मस्तक, कोई चार दाड़े, कोई चार मुख ओर कोई चार भुजावाले अनेक रूपधारी प्राणी प्रकट हुए, जो मांस, मेदा, वसा और हडिडयों संयुक्त थे। उन सबके द्वारा गहरी मार पड़नेसे वे सारे दानव नष्ट हो गये। भारत ! उस समय सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी तथा वज्र और अशनिके समान प्रकाशित होनेवाले शत्रुविनाशक लोहमय बाणोंद्वारा भी मैंने दो ही घड़ीमें सम्पूर्ण दानवोंका संहार कर डाला। गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए अस्त्रोंद्वारा क्षत-विक्षत हो समस्त दानव प्राण त्यागकर आकाशसे पृथ्वीपर गिर पड़े हैं। यह देखकर मैंने पुनः त्रिपुरनाशक भगवान् शंकरके प्रणाम किया। दिव्य आभूषणोंसे विभूषित दानव पाशुपतास्त्रसे पिस गये हैं, यह देखकर देवसारथि मातलिको बड़ हर्ष हुआ। जो कार्य देवताओंके लिये भी दुष्कर और असहय था, वह मेरे द्वारा पूरा हुआ देख इन्द्रसारथि मातलिने मेरा बड़ा सम्मान किया। और अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़कर कहा- 'अर्जुन ! आज तुमने वह कार्य कर दिखाया है, जो देवताओं असुरोंके लिये भी असाध्य था। 'साक्षात् देवराज इन्द्र भी युद्धमें यह सब कार्य करनेकी शक्ति नहीं रखते हैं। हिरण्यपुरका विनाश करनेवाले वीरवर धनंजय ! निश्चय ही देवराज इन्द्र आज तुम्हारे उपर बहुत प्रसन्न होंगे। वीर ! तुमने अपने पराक्रम और तपस्याके बलसे इस आकाशचारी विशाल नगरको तहस-नहस कर डाला; जिसे सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी नष्ट नहीं कर सकते थे। उस आकाशवर्ती नगरको विध्वंस और दानवोंका संहार हो जानेपर वहांकी सारी स्त्रियां विलाप करती हुई नगरसे बाहर निकल आयी। उनके केश बिखरे हुए थे। वे दुःख और व्यथामें डूबी हुई कुररीकी भांति करूण-क्रन्दन करती थी। अपने पुत्र, पिता और भाइयोंके लिये शोक करती हुई वे सब-की-सब पृथ्वीपर गिर पड़ी। जिनके पति मारे गये थे, वे अनाथ अबलाएं दीनतापूर्ण कण्ठसे रोती-चिलाती हुई छाती पीट रहीं थी। उनके हार और आभूषण इधर-उधर गिर पड़े थे। दानवोंका वह नगर शोकमग्न हो अपनी सारी शोभा खो चुका था। वहां दुःख और दीनता व्याप्त हो रही थी। अपने प्रभुओंके मारे जानेसे वह दानवनगर निष्प्रभ और अशोभनीय हो गया था। गन्धर्वनगरकी भांति उसका अस्त्वि अयथार्थ जान पड़ता था। जिसका हाथी मर गया हो, उस सरोवर और जहांके वृक्ष सूख गये हो, उस वनके समान वह नगर अदर्शनीय हो गया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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