महाभारत शल्य पर्व अध्याय 63 श्लोक 20-40
त्रिषष्टितमोअध्यायः (63) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
श्रीकृष्ण ! आपने हम लोगों के लिये गदाओं के बहुत-से आघात सहे, परिघों की मार खायी; शक्ति, मिन्दिपाल, तोमर और फरसों की चोटें सहन कीं तथा बहुत-सी कठोर बातें सुनीं। आपके ऊपर रणभूमि में ऐसे-ऐसे शस्त्रों के प्रहार हुए, जिनका स्पर्श वज्र के तुल्य था । अच्युत ! दुर्योधन के मारे जाने पर वे सारे आघात सफल हो गये। श्रीकृष्ण ! अब ऐसा कीजिये, जिससे वह सारा किया-कराया कार्य फिर नष्ट न हो जाय । श्रीकृष्ण ! आज विजय हो जाने पर भी हमारा मन संदेह के झूला पर झूल रहा है। महाबाहु माधव ! आप गान्धारी देवी के क्रोध पर तो ध्यान दीजिये । महाभागा गान्धारी प्रतिदिन उग्र तपस्या से अपने शरीर को दुर्बल करती जा रही हैं। वे पुत्रों और पौत्रों का वध हुआ सुनकर निश्चय ही हमें जला डालेंगी । वीर ! अब उन्हें प्रसन्न करने का कार्य ही मुझे समयोचित जान पड़ता हैं पुरूषोत्तम ! आपके सिवा दूसरा कौन ऐसा पुरूष है, जो पुत्रों के शोक से दुर्बल हो क्रोध से लाल आंखें करके बैठी हुई गान्धारी देवी की ओर आंख उठाकर देख सके । शत्रुओं का दमन करने वाले माधव! इस समय क्रोध से जलती हुई गान्धारी देवी को शान्त कने के लिये आपका वहां जान ही मुझे उचित जान पड़ता है। महाबाहो ! आप सम्पूर्ण लोकों के स्त्रष्टा और संहारक हैं। आप ही सबकी उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। आप युक्ति और कारणों से संयुक्त समयोचित वचनों द्वारा गान्धारी देवी को शीघ्र ही शान्त कर देंगे । हमारे पितामह श्रीकृष्ण द्वैपायन भगवान व्यास भी वहीं होंगे । महाबाहे! सात्वत वंश के श्रेष्ठ पुरूष ! आप पाण्डवों के हितैषी हैं। आपको सब प्रकार से गान्धारी देवी के क्रोध को शान्त कर देना चाहिये। धर्मराज की यह बात सुनकर यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण ने दारूक को बुलाकर कहा-रथ तैयार करो । केशव का यह आदेश सुनकर दारूक ने बड़ी उतावनी के साथ रथ को सुसज्जित किया अैर उन महात्मा को इसकी सूचना दी । शत्रुओं को संताप देने वाले यादव श्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण तुरंत ही उस रथ पर आरूढ हो हस्तिनापुर की ओर चल दिये । महाराज ! पराक्रमी भगवान माधव उस रथ पर बैठकर हस्तिनापुर में जा पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने नगर में प्रवेश किया । नगर में प्रविष्ट होकर वीर श्रीकृष्ण अपने रथ के गम्भीर घोष से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करने लगे। धृतराष्ट्र को उनके आगमन की सूचना दी गयी और वे अपने उत्तम रथ से उतरकर मन में दीनता न लाते हुए धृतराष्ट्र के महल में गये । वहां उन्होंने मुनि श्रेष्ठ व्यासजी को पहले से ही उपस्थित देखा। व्यास तथा राजा धृतराष्ट्र दोनों के चरण दबाकर जनार्दन श्रीकृष्ण ने बिना किसी व्यग्रता के गान्धारी देवी को प्रणाम किया । राजेन्द्र! तदनन्तर यादवश्रेष्ठ श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र का हाथ अपने हाथ में लेकर उन्मुक्त स्वर से फूट-फूटकर रोने लगे । उन्होंने दो घड़ी तक शोक के आंसू बहाकर शुद्ध जल से नेत्र धोये और विधिपूर्वक आचमन किया। तत्पश्चात शत्रुदमन श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र से प्रस्तुत वचन कहा- भारत ! आप वृद्ध पुरूष हैं; अतः काल के द्वारा जो कुछ भी संघटित हुआ और हो रहा है, वह कुछ भी आपसे अज्ञात नहीं है। प्रभो ! आपको सब कुछ अच्छी तरह विदित है ।
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