महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 135-151
अष्टम (8) अध्याय: सौप्तिक पर्व
वे बड़े ही विकराल और पिंगल वर्ण के थें उनके दांत पहाडों-जैसे जान पड़ते थे। वे सारे अंगों में धूल लपेटे और सिर पर जटा रखाये हुए थे। उनके माथे की हड्डी बहुत बड़ी थी। उनके पांच-पांच पैर और बड़े-बड़े पेट थे। उनकी अंगुलियां पीछे की ओर थीं। वे रूखे, कुरूप और भयंकर गर्जना करने वाले थे। बहुतों ने घंटों की मालाएं पहन रखी थीं। उनके गले में नील चिह्न था। वे बड़े भयानक दिखायी देते थे। उनके स्त्री और पुत्र भी साथ ही थे। वे अत्यन्त क्रूर और निर्दय थे। उनकी ओर देखना भी बहुत कठिन था। वहां उन राक्षसों के भांति-भांति के रूप दृष्टिगोचर हो रहे थे । कोई रक्त पीकर हर्ष से खिल उठे थे। दूसरे अलग-अलग झुंड बनाकर नाच रहे थे। वे आपस में कहते थे- यह उत्तम है, यह पवित्र है और यह बहुत स्वादिष्ट है । मेदा, मज्जा, हड्डी, रक्त और चर्बी का विशेष आहार करने वाले मांसजीवी राक्षस एवं हिंसक जन्तु दूसरों के मांस खा रहे थे । दूसरे कुक्षिरहित राक्षस चर्बियों का पान करके चारों ओर दौड़ लगा रहे थे। कच्चा मांस खाने वाले उन भयंकर राक्षसों के अनेक मुख थे । वहां उस महान जनसंहार में तृप्त और आनन्दित हुए क्रूर कर्म करने वाले घोर रूपधारी महाकाय राक्षसों के कई दल थे। किसी दल में दस हजार, किसी में एक लाख और किसी में एक अर्बुद (दस लाख) राक्षस थे। नरेश्वर ! वहां और भी बहुत से मांसभक्षी प्राणी एकत्र हो गये थे । प्रात:काल पौ फटते ही अश्वत्थामा ने शिविर से बाहर निकल जाने का विचार किया ।। प्रभो ! उस समय नररक्त से नहाये हुए अश्वत्थामा के हाथ से सटकर उसकी तलवार की मूँठ ऐसी जान पड़ती थी, मानो वह उससे अभिन्न हो । जैसे प्रलयकाल में आग कम्पूर्ण प्राणियों को भस्म करके प्रकाशित होती है, उसी प्रकार वह नरसंहार हो जाने पर अपने दुर्गम लक्ष्य तक पहूँचकर अश्वत्थामा अधिक शोभा पाने लगा । नरेश्वर ! अपने पिता के दुर्गम पथ पर चलता हुआ द्रोणकुमार अपनी प्रतिाज्ञा के अनुसार सारा कार्य पूर्ण करके शोक और चिन्ता से रहित हो गया । जिस प्रकार रात के समय सबके सो जाने पर शान्त शिविर में उसने प्रवेश किया था, उसी प्रकार वह नरश्रेष्ठ वीर सबको मारकर कोलाहलशून्य हुए शिविर से बाहर निकला । प्रभो ! उस शिविर से निकलकर शक्तिशाली अश्वत्थामा उन दोनों से मिला और स्वयं हर्षमग्न हो उन दोनों का हर्ष बढाते हुए उसने अपना किया हुआ सारा कर्म उनसे कह सुनाया । अश्वत्थामा का प्रिय करने वाले उन दोनों वीरों ने भी उस समय उससे यह प्रिय समाचार निवेदन किया कि हम दोनों ने भी सहस्त्रों पांचालों और सृंजयों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले हैं । फिर तो वे तीनों प्रसन्नता के मारे उच्च स्वर से गर्जने और ताल ठोकने लगे। इस प्रकार वह रात्रि उन जन-संहार की वेला में असावधान होकर सोये हुए सोमकों के लिये अत्यन्त भयंकर सिद्ध हुई । राजन ! इसमें संशय नहीं कि काल की गति का उल्लघंन करना अत्यन्त कठिन है। जहां हमारे पक्ष के लोगों का संहार करके विजय को प्राप्त हुए वैसे-वैसे वीर मार डाले गये ।
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