महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 10 श्लोक 42-58

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दशम (10) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: दशमअध्याय: श्लोक 42-58 का हिन्दी अनुवाद

जब पुरोहित जी प्रतिदिन पुण्याहवाचन करते और निरन्‍तर धर्म कार्य में संलग्‍न रहते, उस समय राजा उन्‍हें देखकर कभी मुसकराते और कभी जोर-जोर से हंसने लगते थे।


राजन् ! इस प्रकार अनेक बार राजा ने पुरोहित का उपहास किया । पुरोहित ने जब अनेक बार और निरन्‍तर उस राजा को अपने प्रति हंसते और मुस्‍कराते लक्ष्‍य किया, तब उनके मन में बड़ा खेद और क्षोभ हुआ। तदनन्‍तर एक दिन पुरोहित राजा से एकान्‍त में मिले और मनोनुकूल कथाएं सुनाकर राजा को प्रसन्‍न करने लगे| भरतश्रेष्‍ठ ! फिर पुरोहित राजा इस प्रकार बोले – ‘महातेजस्‍वी नरेश ! मैं आपका दिया हुआ एक वर प्राप्‍त करना चाहता हूं’।

राजा ने कहा – द्विज श्रेष्‍ठ ! मैं आपको सौ वर दे सकता हूं । एक की तो बात ही क्‍या । आपके प्रति मेरा जो स्‍नेह और विशेष आदर है, उसे देखते हुए मेरे पास आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है। पुरोहित ने कहा – पृथ्‍वीनाथ ! यदि आप प्रसन्‍न हो तो मैं एक ही वर चाहता हूं । आप पहले यह प्रतिज्ञा कीजिये कि ‘मैं दूंगा ।‘ इस विषय में सत्‍य कहिये, झूठ न बोलिये।

भीष्‍म जी कहते है – युधिष्ठिर ! तब राजा ने उत्‍तर दिया – ‘बहुत अच्‍छा । यदि मैं जानता होउंगा तो अवश्‍य बता दूंगा और यदि नहीं जानता होउंगा तो नहीं बताउंगा’। पुरोहित जी ने कहा – महाराज ! प्रतिदिन पुण्‍याह-वाचन के समय तथा बारंबार धार्मिक कृत्‍य कराते समय एवं शान्ति होम के अवसरों पर आप मेरी ओर देखकर क्‍यों हंसा करते हैं ? आपके हंसने से मेरा मन लज्जित-सा हो जाता है । राजन् ! मैं शपथ दिलाकर पूछ रहा हूं, आप इच्‍छानुसार सच-सच बताइये । दूसरी बात कहकर बहलाइयेगा मत। आपके इस हंसने में स्‍पष्‍ट ही कोई विशेष कारण जान पड़ता है । आपका हंसना बिना किसी कारण के नहीं हो सकता । इसे जानने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्‍कण्‍ठा है, अत: आप यथार्थ रूप से यह सब कहिये।

राजाने कहा – विंप्रवर ! आपके इस प्रकार पूछने पर तो यदि कोई न कहने योग्‍य बात हो तो उसे भी अवश्‍य ही कह देना चाहिए । अत: आप मन लगाकर सुनिये। द्विजश्रेष्‍ठ ! जब हमने पूर्व जन्‍म में शरीर धारण किया था, उस समय जो घटना घटित हुई थी, उसने सुनिये । ब्रहृान् ! मुझे पूर्व जन्‍म की बातों का स्‍मरण है । आप ध्‍यान देकर मेरी बात सुनिये। विप्रवर ! पहले जन्‍म में मैं शूद्र था । फिर बड़ा भारी तपस्‍वी हो गया । उन्‍हीं दिनों आप उग्र तप करने वाले श्रेष्‍ठ महर्षि थे। निष्‍पाप ब्रहृान् ! उन दिनों आप मुझसे बड़ा प्रेम रखते थे, अत: मेरे उपर अनुग्रह करने के विचार से आपने पितृकार्य में मुझे आवश्‍यक विधिका उपदेश किया था। मुनिश्रेष्‍ठ ! कुश के चट कैसे रखे जायें ? हव्‍य और कव्‍य कैसे समर्पित किये जायें ? इन्‍हीं सब बातों का आपने मुझे उपदेश दिया था । इसी कर्म दोष के कारण आपको इस जन्‍म में पुरोहित होना पड़ा। विपेन्‍द्र ! यह कालका उलट-फेर तो देखिये कि मैं तो शूद्र राजा हो गया और मुझे ही उपदेश करने के कारण आपको यह फल मिला।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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