महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 329 श्लोक 40-59

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एकोनत्रिंशदधिकत्रिशततम (329) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व:एकोनत्रिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद

धर्म और अधर्म को छोड़ो। सत्य और असत्य को भी त्याग दो और उन दोनों का त्याग करके जिसके द्वारा त्याग करते हो, उसको भी त्याग दो। सुकल्प के त्याग द्वारा धर्म को और लिप्सा के अभाव द्वारा अधर्म को भी त्याग दो। फिर बुद्धि के द्वारा सत्य और असत्य का त्याग करके परमतत्त्व के निश्चय द्वारा बुद्धि को भी त्याग दो| यह शरीर पंचभूतो का घर है। इसमें हड्डियों के खंभे लगे हैं। यह नस-नाडि़यों से बँधा हुआ, रक्त-मांस से लिपा हुआ और चमड़े से मढ़ा हुआ है। इसमें मल-मूत्र भरा है, जिससे दुर्गन्ध आती रहती है। यह बुढ़ापा और शोक से व्याप्त, रोगों का घर, दुःखरूप, रजोगुण रूपी धूल से ढका हुआ ओर अनित्य है; अतः तुम्हें इसकी आसक्ति को त्याग देना चाहिये। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् पंचमहाभूतों से उत्पन्न हुआ है। इसलिये महाभूत स्वरूप ही है। जो शरीर से परे है, वह महत्तत्त्व अर्थात् बुद्धि, पाँच सूक्ष्म महाभूत अर्थात् तन्मात्राएँ, पाँच प्राण तथा सत्त्व आदि गुण- इन सत्रह तत्त्वों के समुदाय का नाम अव्यक्त है। इनके साथ ही इन्द्रियों के पाँच विषय अर्थात् स्पर्श, शब्द, रूप, रस, और गन्ध एवं मन और अहंकार- इन सम्पूर्ण व्यक्ताव्यक्त को मिलाने से चैबीस तत्त्वों का समूह होता है, उसे व्यक्ताव्यक्तमय समुदाय कहा गया है। इन सब तत्त्वों से जो संयुक्त है, उसे पुरुष कहते हैं। जो पुरुष णर्म, अर्थ, काम, सुख-दुःख और जीवन-मरण के तत्त्व को ठीक-ठीक समण्ता है, वही उत्पत्ति और प्रलय के तत्त्व को भी यथार्थ रूप से जानता है। ज्ञान के सम्बन्ध में जितनी बातें हैं, उन्हें परम्परा से जानना चाहिये। जो पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, उन्हें व्यक्त कहते हैं और जो इन्द्रियों के अगोचर होने के कारण अनुमान से जाने जाते हैं, उनको अव्यक्त कहते हैं। जिनकी इन्द्रियाँ अपने वश में हें, वे जीव उसी प्रकार तृप्त हो जाते हें, जैसे वर्षा की धारा से प्यासा मनुष्य। ज्ञानी पुरुष अपने को प्राणियों में व्याप्त और प्राणियों को अपने में स्थित देखते हैं। उस परावरदर्शी ज्ञानी पुरुष की ज्ञानमूलक शक्ति कभी नष्ट नहीं होती। जसम्पूर्ण भूतों को सीाी अवस्थाओं में सदा देखा करता है, वह सम्पूर्ण प्राणियों के सहवास में आकर भी कभी अशुभ कर्मों से युक्त नहीं होता अर्थात् अशुभ कर्म नहीं करता। जो ाान के बल से मोहजनित नाना प्रकार के क्लेशों से पार हां गया है, उसके लिये जगत् में बौद्धिक प्रकाश से कोई भी लोक-व्यवहार का मार्ग अवरुद्ध नहीं होता। मोक्ष के उपाय को जानने वाले भगवान् नारायण कहते हैं कि आदि- अन्त से रहित, अविनाशी, बकर्ताऔर निराकार जीवात्मा इस शरीर में स्थित है। जो जीव अपने ही किये हुए विभिन्न कर्मों के कारण सदा दुःखी रहता है, वही उस दुःख का निवारण करने के लिये नाना प्रकार के प्राणियों की हत्या करता है। तदनन्तर वह और भी बहुत-से नये-नये कर्म करता है और जैसे रोगी अपथ्य खाकर दुःख पाता है, उसी प्रकार उस कर्म से वह अधिकाधिक कष्ट पाता रहता है। जो मोह से अन्धा (विवेकशून्य) हो गया है, वह सदा ही दुःखद भोगों में ही सुखबुद्धि कर लेता है और मथानी की भाँति कर्मों से बँधता एवं मथा जाता है। फिर प्रारब्ध कर्मों के उदय होने पर वह बद्ध प्राणी कर्म के अनुसार जन्म पाकर संसार में नाना प्रकार के दुःख भोगता हूआ उसमें चक्र की भाँति घूमता रहता है। इसलिये तुम कर्मों से निवृत्त, सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त, सर्वज्ञ, सर्वविजयी, सिद्ध और सांसारिक भावना से रहित हो जाओ। बहुत से ज्ञानी पुरुष संयम और तपस्या के वल से नवीन बन्धनों का उच्छेद करके अनन्त सुख देने वाली अबाध सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में तीन सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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