महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 87 श्लोक 23-40
सप्ताशीतितम (87) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
उस समय रणभेरियां बज रही थीं। उनके निर्मल शब्दों से मिली हूई शङख-ध्वनियों तथा गर्जन से, ताल ठोंकने और उच्चस्वर से पुकारने आदि के शब्दों से सम्पूर्ण दिशाएं गूंज उठी थीं। राजन्! तदनन्तर समस्त शूरवीर समरभूमि में पहुंचकर परस्पर एक-दूसरे को एकटक नेत्रों से देखने लगे। नरेन्द्र! पहले उन योद्धाओं ने एक-दुसरे के नाम ले-लेकर पुकार-पुकारकर युद्ध के लिये परस्पर आक्रमण किया। तत्पश्चांत् आपके और पाण्डकवों के सैनिक एक-दूसरे पर अस्त्रों द्वारा आघात-प्रत्याघात करने लगे। उस समय उनमें अत्यन्त भयंकर घोर युद्ध होने लगा। भारत! उस समय युद्ध में तीखे नाराच नामक बाण इस प्रकार पड़ते थे, मानो मुख फैलाये हुए भयंकर नाग झुंड-के-झुंड गिर रहे हों। राजन्! तेल की धोयी चमचमाती हुई तीखी शक्तियां बादलों से गिरने वाली कान्तिमती बिजलियों के समान सब ओर गिर रहीं थीं। सुवर्णभूषित निर्मल लोहपत्र से जड़ी हुई सुन्दर गदाएं पर्वत-शिखरों के समान वहां गिरती दिखायी देती थीं। भारत! स्वच्छ आकाश के सदृश खङ्ग और सौ चन्द्राकार चिह्नों से विभूषित ॠषभचर्म की विचित्र ढालें दृष्टिगोचर हो रही थीं। राजन्! रणभूमि में गिरायी जाती हुई वे सब-की-सब तलवारें और ढालें बड़ी शोभा पा रहीं थीं।
नरेश्वरर! दोनों पक्षों की सेनाएं समरभूमि में एक-दूसरी से जूझ रही थीं। उस समय परस्पर युद्ध के लिये उद्यत हुई देवसेना और दैत्यसेना के समान उनकी शोभा हो रही थी। वे कौरव-पाण्डाव सैनिक सब ओर समराङ्गण में एक-दूसरे पर धावा करने लगे। रथी अपने रथों को तुरंत ही उस महायुद्ध में दौड़कर ले आये। श्रेष्ठ नरेश रथ के जुओं से जुए भिड़ाकर युद्ध करने लगे। भरतश्रेष्ठ! सम्पूर्ण दिशाओं मे परस्पर जूझते हुए दन्तार हाथियों के दांतों के आपस में टकराने से उनमें धूम सहित अग्नि प्रकट हो जाती थी। कितने ही हाथी सवार प्रासों से घायल होकर पर्वत-शिखर से गिरने वाले वृक्षों के समान सब ओर हाथियों की पीठों से गिरते दिखायी देते थे। बघनखों एवं प्रासों द्वारा युद्ध करने वाले शूरवीर पैदल सैनिक एक दूसरे पर प्रहार करते हुए विचित्र रूपधारी दिखायी देते थे। इस प्रकार कौरव तथा पाण्डेव सैनिक रणक्षेत्र में एक-दूसरे से भिड़कर नाना प्रकार के भयंकर अस्त्रों द्वारा विपक्षियों को यमलोक पहुंचाने लगे। इतने ही में शान्तनुनन्दन भीष्मर अपने रथ की घरघराहट से सम्पूर्ण दिशाओं को गुंजाते और धनुष की टङ्का से लोगों को मूर्च्छित करते हुए समरभूमि में पाण्ड्व सैनिको पर चढ़ आये। उस समय धृष्टघद्यूम्न आदि पाण्डव महारथी भी भयंकर नाद करते हुए युद्ध के लिये संनद्ध होकर उनका सामना करने को दौडे़। भरतनन्दन! फिर तो आपके और पाण्डवों के योद्धाओं में परस्पर घमासान युद्ध छिड़ गया। पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथी उक-दुसरे से गुंथ गये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मएपर्व के अन्तर्गत भीष्व्-ामधपर्व में आठवें दिन के युद्ध से सम्बन्ध रखने वाला सतासीवां अध्याषय पूरा हुआ
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