महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 97 श्लोक 21-43

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:३३, २१ अगस्त २०१५ का अवतरण ('==सप्तनवतितम (97) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)== <div style=...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सप्तनवतितम (97) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तनवतितम अध्याय: श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद

उसने शिरीष पुष्प् एवं सुवर्ण के समान पीतवर्ण का बहु मूल्य सुगन्धित चन्दन लगा रखा था। राजन् ! उसके सारे अंग निर्मल वस्त्र से ढके हुए थे। वह सिंह के समान मस्तानी चाल से चलता था और अपनी निर्मल प्रभा के कारण आकाश में प्रकाशित होने वाले सूर्य के समान शोभा पा रहा था। भीष्म के शिविर की ओर जाते हुए पुरूषश्रेष्ठ दुर्योधन के पीछे सारे जगत् के महाधनुर्धर कौरव पक्षीय नरेश तथा विशाल धनुष धारण करने वाले उसके भाई उसी प्रकार जा रहे थे, जैसे इन्द्र के पीछे देवता चलते है। भारत ! कुछ लोग घोड़ों पर और कुछ लोग हाथियों पर चढ़े थे। दूसरे लोग रथों पर आरूढ़ हो सब ओर से नरश्रेष्ठ दुर्योधन को घेरे हुए थे। राजा दुर्योधन की रक्षा के लिये समस्त सुहृद् अस्त्र-शस्त्र लेकर उसी प्रकार उसके साथ हो गये थे, जैसे स्वर्ग के देवता इन्द्र की रक्षा के लिये उनके साथ रहते है। इस प्रकार कौरवों से पूजित हो महाबली कौरवराज दुर्योधन यशस्वी भीष्म के शिविर में गया। उसके भाई उसे घेरकर निरन्तर उसी के साथ-साथ रहे। उदार स्वभाव वाले राजा दुर्योधन ने उस समय सम्पूर्ण शत्रुओं का संहार करने में समर्थ, हाथी की सूँड़ के समान विशाल तथा अस्त्र प्रहार की शिक्षा में निपुणता को प्राप्त हुई अपनी दाहिनी भुजा को ऊपर उठाकर सम्पूर्ण दिशाओं में उठी हुई विभिन्न देश के निवासी मनुष्यों की प्रणामाज्जलियों को स्वीकार करते हुए उनकी मधुर बातें सुनीं। सम्पूर्ण जगत् का अधीश्वर महायशस्वी राजा दुर्योधन सम्पूर्ण सेनाओं से घिरकर सूतों और मागधों के मुख से अपनी स्तुति सुनता और सब लोगों का समादर करता हुआ (भीष्म के शिविर की ओर ) आगे बढ़ता गया। सुगन्धित तेल से भरे हुए सोने के जलते दीपक लिये बहुत से सेवक महाराज दुर्योधन को सब ओर से घेरकर चल रहे थे। उन सुवर्णमय प्रदीपों से घिरकर प्रकाशित होने वाला राजा दुर्योधन दीप्तिमान् महाग्रहों से संयुक्त चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था। सुनहरी पगड़ी धारण करके हाथों में बेंत और झर्झर लिये बहुतेरे सिपाही धीरे-धीरे सब ओर से लोगों की भीड़ को हटाते हुए चल रहे थे। तत्पश्चात् राजा दुर्योधन भीष्म के सुन्दर निवास स्थान के निकट पहुँचकर घोड़े से उतर पड़ा और भीष्मजी के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके बहुमूल्य बिछौनो से युक्त सर्वतों भद्रनामक सर्वोत्तम स्वर्णमय सिंहासन पर बैठ गया।
इसके बाद ने़त्रों में आँसू भरकर हाथ जोड़े हुए गद्रद कण्ठ से वह भीष्म से इस प्रकार बोला- शत्रुसूदन ! हम लोग आपका आश्रय लेकर युद्ध के मैदान में इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों को भी जीतने का उत्साह रखते है; फिर मित्रों और बान्धवों सहित वीर पाण्डवों को जीतना कौन बड़ी बात है। अतः प्रभो ! गडंगानन्दन ! आपको मुझपर कृपा करनी चाहिये। जैसे देवराज इन्द्र दानवों का संहार करते है, उसी प्रकार आप वीर पाण्डवों को मार डालिये। महाराज ! भरतनन्दन ! मैं केकयों सहित सम्पूर्ण सोमकों, पांच्चलों और करूषों को मार डालूँगा- आपकी यह बात सत्य हो। भारत ! आप युद्ध में सामने आये हुए कुन्तीपुत्रों और महाधनुर्धर सोमकों का वध कीजिये और ऐसा करके अपने वचन को सत्य कीजिये। शक्तिशाली राजन् ! यदि पाण्डवों के प्रति दयाभाव अथवा मेरे दुर्भाग्यवश मेरे प्रति द्वेषभाव रखने के कारण आप पाण्डवों की रक्षा करते है तो समरभूमि में शोभा पाने वाले कर्ण को युद्ध के लिये आज्ञा दे दीजिये। वह सुहृदों और बान्धवों सहित कुन्तीपुत्रों को अवश्य जीत लेगा। सत्यपराक्रमी भीष्म से ऐसा कहकर आपका पुत्र राजा दुर्योधन और कुछ नहीं बोला।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व में भीष्म के प्रति दुर्योधन का वचनविषयक सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।