महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 97 श्लोक 1-20
सप्तनवतितम (97) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
दुर्योधन अपने मन्त्रियों से सलाह करके भीष्म से पाण्डवों को मारने अथवा कर्ण को युद्ध के लिये आज्ञा देने का अनुरोध करना संजय कहते है- महाराज ! तदनन्तर राजा दुर्योधन, सुबलपुत्र शकुनि, आपका पुत्र दुःशासन, दुर्जयवीर सूतपुत्र कर्ण- ये सभी मिलकर अभीष्ट कार्य के विषय में गुप्त परामर्श करने लगे। उनकी मन्त्रणा का मुख्य विषय यह था कि पाण्डवों को दल बलसहित युद्ध में कैसे जीता जा सकता है।
उस समय राजा दुर्योधन ने सूत पुत्र कर्ण तथा महाबली शकुनि को सम्बोधित करके उन सब मन्त्रियों से कहा- मित्रों ! द्रोणाचार्य, भीष्म, कृपाचार्य, शल्य तथा भूरिश्रवा- ये लोग युद्ध में कुन्ती के पुत्रों को कभी कोई बाधा नहीं पहुँचातें हैं इसका क्या कारण है, यह मैं नही जानता। वे पाण्डव स्वयं अवध्य रहकर मेरी सेना का संहार कर रहे है। कर्ण ! इस प्रकार मेरी सेना तथा अस्त्र-शस्त्रों का युद्ध में क्षय होता चला जा रहा है। राधानन्दन ! तुम युद्ध में मुँह मोड़कर बैठ रहे हो, इस लिये पाण्डवों ने मुझे परास्त कर दिया।
द्रोणाचार्य के समाने ही मेरे देखते-देखते भीमसेन ने मेरे वीर भाईयों को मार डाला। पाण्डव शूरवीर और देवताओं के लिये भी अवध्य है। उनके द्वारा पराजित होकर मैं जीवन के संशय में पड़ गया हूँ। ऐसी दशा में रणक्षेत्र में मैं कैसे युद्ध करूँगा। यह सुनकर सूत्रपुत्र कर्ण ने शत्रुदमन नरनाथ महाराज दुर्योधन से इस प्रकार कहा- कर्ण बोला- भरतश्रेष्ठ ! शोक न करो। मैं तुम्हारा प्रिय कार्य करूँगा, परंतु शान्तनुनन्दन भीष्म शीघ्र ही महायुद्ध हट जायँ। भरतवंशी नरेश ! जब युद्ध में गडंगनन्दन भीष्म हथियार डाल देंगे और उससे सर्वथा निवृत्त हो जायँगे, उस समय मैं युद्ध में भीष्म के देखते देखते सोमकों सहित समस्त कुन्तीपुत्रों को एक साथ मार डालूँगा, यह मैं तुमसे सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ। भीष्म सदा ही पाण्डवों पर दया करते है; अतः युद्ध में वे इन महारथियों को जीतने में सर्वथा असमर्थ हैं। तात ! भीष्म युद्ध में अभिमान रखने वाले तथा सदा युद्ध को प्रिय मानने वाले है; तथापि पाण्डवों पर दया रखने के कारण वे उन सबकों संग्राम में कैसे जीत सकेगे। भारत ! अतः तुम शीघ्र ही यहाँ से भीष्म के शिविर में जाकर अपने उन पूजनीय वृद्ध पितामह को राजी करके उनसे हथियार रखवा दो। राजन् ! भीष्म के हथियार डाल देने पर पाण्डवों को केवल मेरे द्वारा युद्ध में सुहृदों और बान्धवों सहित मारा गया समझो। कर्ण के ऐसा कहने पर आपके पुत्र दुर्योधन ने वहीं अपने भाई दुःशासन से इस प्रकार कहा- दुःशासन ! तुम शीघ्र सब प्रकार से ऐसी व्यवस्था करो, जिससे यात्रा सम्बन्धी सब आवश्यक तैयारी सम्पन्न हो जाय। राजन् ! दुःशासन से ऐसा कहकर जनेश्वर दुर्योधन ने कर्ण से कहा, शत्रुदमन ! मैं मनुष्यों में श्रेष्ठ भीष्म को युद्ध से हटने के लिये राजी करके अभी तुम्हारे पास लौट आता हूँ। फिर भीष्म के हट जाने पर तुम युद्ध के मैदान में शत्रुओं पर प्रहार करना। प्रजानाथ ! तदनन्तर आपका पुत्र दुर्योधन तुरंत ही अपने भाईयों के साथ शिविर से बाहर निकला, मानो देवताओं के साथ इन्द्र अपने भवन से बाहर आए हो। उस समय भाई दुःशासन ने अपने ज्येष्ठ भ्राता सिंह के समान पराक्रमी नृपश्रेष्ठ दुर्योधन को घोड़े पर चढ़ाया। नरेश्वर ! महाराज ! माथे पर मुकुट, भुजाओं में अडंगद तथा हाथों में आदि आभूषण धारण किये मार्ग पर जाता हुआ आपका पुत्र दुर्योधन बड़ी शोभा पा रहा था।
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