महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 103 श्लोक 21-40

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त्रयधिकशततम (103) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: त्रयधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-40 का हिन्दी अनुवाद

प्रजानाथ ! कितने ही रथी रथों से हीन हो गये थे। वे कवच, कुण्डल और पगड़ी धारण किये बड़े तेजस्वी दिखायी देते थे। उन सबने कण्ठ में स्वर्णमय पदक और भुजाओं में बाजूबंद धारण कर रखे थे। वे देखने में देवकुमारों के समान सुन्दर और युद्ध में इन्द्र के समान शौर्यसम्पन्न थे। वे समृद्धि में कुबेर और नीतिज्ञता में बृहस्पति जी से भी बढ़कर थे। ऐसे सर्वलोकेश्वर शूरवीर भी रथहीन हो गँवार मनुष्यों की भाँति जहाँ-तहाँ भागते दिखायी देते थे। नरश्रेष्ठ ! कितने ही दन्तार हाथी अपने श्रेष्ठ सवारों से रहित हो अपनी ही सेना को कुचलते हुए प्रत्येक शब्द के पीछे दौड़ते थे। माननीय महाराज ! ढाल, विचित्र चँवर, पताका, श्वेत छत्र, सुवर्णदण्डभूषित चामर - ये चारों और बिखरे पड़े थे, और ( इन्हीं के ऊपर से ) नूतन मेघों की घटा के सदृश हाथी मेघों के समान भयंकर गर्जना करते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में दौड़ते दिखायी देते थे। प्रजानाथ ! इसी प्रकार हाथियों से रहित हाथीसवार भी आपके और पाण्डवों के भयानक युद्ध में इधर-उधर दौड़ते दिखायी देते थे। अनेक देशों में उत्पन्न, सुवर्णभूषित और वायु के समान वेगशाली सैकड़ों और हजारों घोड़ों को हमने रणभूमि से भागते देखा। हमने युद्ध में बहुत से घुड़सवारों को देखा, जो घोड़ों के मारे जाने पर हाथ में तलवार लिये सब और भागते और शत्रुओं द्वारा खदेड़े जाते थे। उस महायुद्ध में एक हाथी भागते हुए दूसरे हाथी के पास पहुँचकर अपने वेग से बहुतेरे पैदल सिपाहियों तथा घोड़ों को कुचलता हुआ उसका अनुसरण करता था।
राजन् ! इसी प्रकार उस रणक्षेत्र में एक हाथी बहुत से रथों को रौंद डालता था और रथ पृथ्वी पर पड़े हुए घोड़ों को कुचलकर भागते जाते थे। नरेश्वर ! समरांगण में बहुत से घोडों ने पैदल मनुष्यों को कुचल दिया। राजन् ! इस प्रकार वे सैनिक अनेक बार एक दूसरे को कुचलते रहे। उस महाभयंकर घोर युद्ध में रक्त, आँत और तरंगों से युक्त एक भयानक नदी बह चली। वह हड्डियों के समूहरूपी शिलाखण्डों से भरी थीं। केश ही उसमें सेवार और घास के समान जान पड़ते थे। रथ कुण्ड और बाण भँवर के समान प्रतीत होते थे। घोड़े ही उस दुर्गम नदी के मत्स्य थे। कटे हुए मस्तक पत्थरों के टुकड़ों के समान बिखरे थे। हाथी ही उसमें विशाल ग्राहक के समान जान पड़ते थे, कवच और पगड़ी फेनराशि के समान थे, धनुष ही उसका वेगयुक्त प्रवाह और खंग ही वहाँ कच्छप के समान प्रतीत होते थे। पताका और ध्वजाएँ किनारे के वृक्षों के समान जान पड़ती थी। मनुष्यों की लाशें ही उसके कगारें थी, जिन्हें वह अपने वेग से तोड़-तोड़कर बहा रही थीं। मांसाहारी पक्षी ही उसके आस पास हंसों के समान भरे हुए थे। वह नदी यम के राज्य को बढ़ा रही थी। राजन् ! बहुत से शूरवीर महारथी क्षत्रिय नौका के समान घोडे, रथ, हाथी आदि पर चढ़कर भय से रहित हो उस नदी के पार जा रहे थे। जैसे वैतरणी नदी मरे हुए प्राणियों को प्रेतराज के नगर में पहुँचाती है, उसी प्रकार वह रक्तमयी नदी डरपोक और कायरों को मूर्छित से करके रणभूमि से दूर हटाने लगी। वहाँ खडे हुए क्षत्रिय वह अत्यन्त भयंकर मारकाट देखकर यह पुकार-पुकार कर कह रहे थे कि दुर्योधन के अपराध से ही सारे क्षत्रिय विनाश को प्राप्त हो रहे है। पापात्मा राजा धृतराष्ट्र ने लोभ से मोहित होकर गुणवान पाण्डवों से द्वेष क्यों किया?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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