महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 48-62

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त्रिषष्टितम (63) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रिषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 48-62 का हिन्दी अनुवाद

उनमें जो पुरुष था, उसे शत्रुओं का दमन करने वाले धनदाता राजर्षिप्रवर वसु ने अपना सेनापति बना लिया । और जो कन्‍या थी उसे राजा ने अपनी पत्नी बना लिया । उसका नाम था गिरिका । बुद्विमानों में श्रेष्ठ जनमेजय ! एक दिन ॠतुकाल को प्राप्‍त हो स्‍नान के पश्चात शुद्ध हुई वसुपत्नी गिरिका ने पुत्र उत्पन्न होने योग्‍य समय में राजा से समागम की इच्‍छा प्रकट की । उसी दिन पितरों ने राजाओं में श्रेष्ठ वसु पर प्रसन्न हो उन्‍हें आज्ञादी ’तुम हिंसक पशुओं का वध करो।‘ तब राजा पितरों की आज्ञा का उल्‍लघंन न करके कामनावश साक्षात् दूसरी लक्ष्‍मी के समान अत्‍यन्‍त रुप और सौन्‍दर्य के वैभव से सम्‍पन्न गिरिका का ही चिन्‍तन करते हुए हिंसक पशुओं को मारने के लिये वन में गये । राजा का वह वन देवताओं के चैत्ररथ नामक वन के समान शोभा पा रही थी। वसन्‍त का समय था, अशोक ,चम्‍पा, आम अतिमुक्तक (माधवीलता), पुन्नाग (नागकेसर), कनेर, मौलसिरी, दिव्‍यपाटल, पाटल, नारियल, चन्‍दन तथा अर्जुन – ये स्‍वादिष्ट फलों से युक्त,रमणीय तथा पवित्र महावृक्ष उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। कोकिलाओं के कल-कूजन से समस्‍त वन गूंज उठा था । चारों ओर मतवाले भौंरे कल-कल नाद कर रहे थे । यह उद्दीपन-सामग्री पाकर राजा का हृदय कामवेदना से पीड़ित हो उठा। उस समय उन्‍हें अपनी रानी गिरीकर दर्शन नहीं हुआ । उसे न देख कर कामाग्नि से संतप्त हो वे इच्‍छानुसार इधर-उधर घूमने लगे । घूमते- घूमते उन्‍होंने एक रमणीय अशोक का वृक्ष देखा, जो पल्‍लवों से सुशोभित और पुष्‍प के गुच्‍छों से आच्‍छादित था। उसकी शाखाओं के अग्रभाग फूलों से ढके हुए थे ।राजा उसी वृक्ष्‍ा के नीचे उसकी छाया में सुखपूर्वक बैठ गये। वह वृक्ष मकरन्‍द और सुगन्‍ध से भरा था। फूलों की गंध से वह बरबस मन को मोह लेता था। उस समय कामोद्दीपक वायु से प्रेरित हो राजा के मन में रति के लिये स्‍त्रीविषयक प्रीति उत्‍पन्न हुईं इस प्रकार वन में विचरने वाले राजा उपरिचर का वीर्य स्‍खलित हो गया । उसके स्‍खलित होते ही राजा ने यह सोचकर कि मेरा वीर्य व्‍यर्थ न जाय, उसे वृक्ष के पत्ते पर उठा लिया । उन्‍होंने विचार किया ‘मेरा यह स्‍खलित वीर्य व्‍यर्थ न हो साथ ही मेरी पत्नि गिरिका का ॠतुकाल भी व्‍यर्थ न जाये’ इस प्रकार बारम्‍बार विचार कर राजाओं में श्रेष्ठ वसु ने उस वीर्य को अमोघ बनाने का ही निश्‍चय किया । तदनन्‍तर रानी के पास अपना वीर्य भेजने का उपयुक्‍त अवसर देख उन्‍होंने उस वीर्य को पुत्रोत्‍पत्तिकारक मन्‍त्रों द्वारा अभिमंत्रित किया । राजा वसु धर्म और अर्थ के सूक्ष्‍म तत्‍व को जानने वाले थे। उन्‍होंने अपने विमान के समीप ही बैठे हुए शीघ्रगामी श्‍वेन पक्षी (बाज) के पास जाकर कहा-‘सौम्‍य! तुम मेरा प्रिय करने के लिये यह वीर्य मेरे घर ले जाओ और महारानी गिरका को शीघ्र दे दो; क्‍योंकि आज ही उनका ॠतु काल है। ‘बाज वह वीर्य लेकर वड़े वेग के साथ तुरन्‍त वहां से उड़ गया। वह आकाशचारी पक्षी सर्वोत्तम वेग का आश्रय लेकर उड़ा जा रहा था, इतने में एक दूसरे बाज ने उसे आते देखा । उस बाज को देखते ही उसके पास मांस होने की आशंका से दूसरा बाज तत्‍काल उस पर टूट पड़ा। फि‍र वे दोनों पक्षी आकाश में एक दूसरे को चोंच मारते हुए युद्ध करने लगे ।। उन दोनों के युद्ध करते समय वह वीर्य यमुनाजी के जल में गिर पड़ा। अद्रिका नाम से विख्‍यात एक सुन्‍दरी अप्‍सरा ब्रह्माजी के शाप से मछली होकर वहीं यमुनाजी के जल में रहती थी। बाज के पंजे से छूटकर गिरे हुए वसु सम्‍बन्‍धी उस वीर्य को मत्‍स्‍यरुपधारिणी अद्रिका ने वेग पूर्वक आकर निगल लिया। भरतश्रेष्ठ ! तत्‍पश्‍चात् दसवां मांस आने पर मत्‍स्‍यजीवी मल्लाहों ने उस मछली को जाल में बांध लिया और उसके उदर को चीर कर एक कन्‍या और एक पुरुष निकाला। यह आश्‍चर्यजन घटना देखकर मछेरों ने राजा के पास जाकर निवेदन किया- ‘महाराज ! मछली के पेट से ये दो मनुष्‍य बालक उत्‍पन्न हुए हैं’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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