महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-16

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०५:१८, २५ अगस्त २०१५ का अवतरण ('==एकोनत्रिंश (29) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)== <d...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकोनत्रिंश (29) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान देना

भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठिर! इन्द्रके ऐसा कहने पर मतंग अपने मन को और भी दृढ़ और संयमशील बनाकर एक हजार वर्षों तक एक पैर से ध्यान लगाये खडा रहा। जब एक हजार वर्ष पूरे होने में कुछ ही बाकी था, उस समय बल और वृत्रासुर के शत्रु देवराज इन्द्र फिर मतंग को देखने लिये आये और पुनः उससे उन्होंने पहले की कही हुई बात ही दुहरायी। मतंगने कहा- देवराज! मैंने ब्रहमचर्य-पालनपूर्वक एकाग्रचित हो एक हजार वर्षो तक एक पैर से खड़ा होकर तप किया है। फिर मुझे ब्राहमणत्व कैसे नहीं प्राप्त हो सकता ? इन्द्रने कहा-मतंग! चाण्डाल की योनि में जन्म लेनेवाले को किसी तरह ब्राहमणत्व नहीं मिल सकता; इसलिये तुम दूसरी कोई अभीष्ट वस्तु मांग लो। जिस से तुम्हारा यह परिश्रम व्यर्थ न जाय। उनके ऐसा कहने पर मतंग अत्यन्त शोकमग्न हो गया में जाकर अंगुठे के बलपर सौ वर्षों तक खड़ा रहा। उसने दुर्धर योग का अनुष्ठान किया। उसका सारा शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया। नस-नाडि़यां उघड़ आयी। धर्मात्मा मतंग का शरीर चमड़े से ढकी हुई हडिडयों का ढांचामात्र रह गया। उस अवस्था में अपने को न संभाल सकने के कारण वह गिर पड़ा-यह बात हमारे सुनने में आयी है। उसे गिरते देख सम्पूर्ण भूतों के हित में तत्पर रहनेवाले वर देने में समर्थ इन्द्रने दौड़कर पकड़ लिया। इन्द्रने कहा-मतंग! इस जन्म में तुम्हारें लिये ब्राहमणत्व की प्राप्ति असम्भव दिखायी देती है। ब्राहमणत्व अत्यन्त दुर्लभ है; साथ ही वह काम-क्रोध आदि लुटेरों से घिरा हुआ है। जो ब्राहमण का आदर करता है वह सुख पाता है, और जो अनादर करता है वह दुःख पाता है। ब्राहमण समस्त प्राणियों को योगक्षेम की प्राप्ति कराने वाला है। मतंग! ब्राहमणों के तृप्त होने से ही देवता और पितर भी तृप्त होते है। ब्राहमण को समस्त प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है। ब्राहमण जो-जो जिस प्रकार करना चाहता है, अपने तप के प्रभाव से वैसा ही कर सकता है। तात! जीव इस जगत् के भीतर अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ बारंबार जन्म लेता है। इसी तरह जन्म लेते-लेते कभी किसी समय में वह ब्राहमणत्व को प्राप्त कर लेता है। अतः जिनका मन अपने वश में नहीं है, ऐसे लोगों के लिये सर्वथा दुष्प्राप्य ब्राहमणत्व को पाने का आग्रह छोड़ कर तुम कोई दूसरा ही वर मांगो। यह वर तो तुम्हारे लिये दुर्लभ ही है। मतंगने कहा-देवराज! मैं तो यों ही दुःखसे आतुर हो रहा हूं, फिर तुम भी क्यों मुझे पीड़ा दे रहे हो ? मुझ हुए को क्यों मारते है ? मैं तो तुम्हारे लिये शोक करता हूं, जो जन्म से ही ब्राहमणत्व को पाकर भी तुम उसे अपना नहीं रहे। शतक्रतो! यदि क्षत्रिय आदि तीन वर्णें के लिये ब्राहमणत्व दुर्लभ है तो उस परम दुर्लभ ब्राहमणत्व को पाकर भी मनुष्य ब्राहमणोचित शम-दम का अनुष्ठान नहीं करते है। यह कितने दुःख की बात है! वह पापियों से भी बढ़कर अत्यन्त पापी और उन में भी अधम ही है, जो दुर्लभ धन की भांति ब्राहमणत्व को पाकर भी उसके महत्व को नहीं समझता है। पहले तो ब्राहमणत्व का प्राप्त होना ही कठिन है यदि वह प्राप्त हो जाय तो उसका पालन करना और भी कठिन हो जाता है; किंतु बहुत-से मनुष्य इस दुर्लभ वस्तु को पाकर भी तदनुकूल आचरण नहीं करते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।