महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 121 श्लोक 1-20

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एकविंशत्‍यधिकशततम (121) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: एकविंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन का दिव्ये जल प्रकट करके भीष्म जी की प्यास बुझाना तथा भीष्म३ जी का अर्जुन की प्रशंसा करते हुए दुर्योधन को संधि के लिये समझाना संजय कहते हैं- महाराज! जब रात बीती और सवेरा हुआ, उस समय सब राजा, पाण्व तथा आपके पुत्र पुन: वीर-शय्या पर सोये हुए वीर पितामह भीष्म की सेवा में उपस्थित हुए। कुरूश्रेष्ठ ! वे सब क्षत्रिय क्षत्रिय-शिरोमणि भीष्म जी को प्रणाम करके उनके समीप खडे़ हो गये। सहस्त्रों कन्याआएं वहां आकर चंदन-चूर्ण, लाजा (खील) और माला-फूल आदि सब प्रकार की शुभ सामग्री शांतनुनंदन भीष्मस के ऊपर बिखेरने लगीं। स्त्रियां, बूढे़, बालक तथा अन्य् साधारण जन शांतनु कुमार भीष्म जी का दर्शन करने के लिये वहां आये, मानो समस्त प्रजा अधंकार नाशक भगवान् सूर्य की उपासना के लिये उपस्थित हुई हो। सैकडो़ बाजे ओर बजाने वाले, नट, नर्तक और बहुत-से शिल्पी।
कुरूवंश के वृद्ध पुरूष पितामह भीष्म के पास आये। कौरव तथा पाण्ड व युद्ध से निवृत्त हो कवच खोलकर अस्त्रश-शस्त्र नीचे डालकर पहले की भांति परस्पार प्रेमभाव रखते हुए अवस्था की छोटी-बडी के अनुसार यथोचित क्रम से शत्रुदमन दुर्जय वीर देवव्रत भीष्म के समीपएक साथ बैठ गये। सैकडो़ राजाओं से भरी और भीष्म से सुशोभित हुई वह भरतवंशियों की दीप्तिशालिनी सभी आकाश में सूर्यमण्डअल की भांति उस रणभूमि में शोभा पाने लगी। गङ्गानंदन भीष्म के पास बैठी हुई राजाओं की वह मण्ड ली देवेश्र्वर ब्रह्माजी की उपासना करने वाले देवताओं के समान सुशोभित हो रही थी। भरतश्रेष्ठा ! भीष्म जी बाणों से संतप्तन होकर सर्प के समान लम्बीक सांस खींच रहे थे। वे अपनी वेदना को धैर्यपूर्वक सह रहे थे। बाणों की जलन से उनका सारा शरीर जल रहा था। वे शस्त्रों के आघात से मूर्छित हो रहे थे। उस समय उन्हों ने राजाओं की ओर देखकर केवल इतना ही कहा ‘पानी’। राजन्! तब वे क्षत्रियनरेश चारों ओर से भोजन की उत्तमोत्तम सामग्री और शीतल जल से भरे हुए घडे़ ले आये । उनके द्वारा लाये हुए उस जल को देखकर शांतनुनंदन भीष्मल ने कहा-‘अब मैं मनुष्यह लोक के कोई भी भोग अपने उपयोग में नहीं ला सकता, मैं उन्हें छोड़ चुका हूं। यद्यपि यहां बाणशय्यालपर सो रहा हूं, तथापि मनुष्य लोक से ऊपर उठ चुका हूं। केवल सूर्य-चन्द्रंमा के उत्तरपथपर आने की प्रतीक्षा में यहां रूका हुआ हूं’। भारत! ऐसा कहकर शांतनुनंदन भीष्म ने अपनी वाणीद्वारा अन्यक राजाओं की निंदा करते हुए कहा-‘अब मैं अर्जुन को देखना चाहता हूं’। तब महाबाहु अर्जुनपितामह भीष्मत के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके हाथ जोडे़ खडे़ हो गये और विनयपूर्वक बोले-‘मेरे लिये क्यात आज्ञा है, मैं कौन-सी सेवा करूं?’ राजन्! प्रणाम करके आगे खडे़ हुए पाण्डुोपुत्र अर्जुन को देखकर धर्मात्माा भीष्म, बडे़ प्रसन्नस हुए और इस प्रकार बोले- ‘अर्जुन! तुम्हाथरे बाणों से मेरे सम्पूर्ण अङ्ग बिंधे हुए हैं; अत: मेरा यह शरीर दग्धर-सा हो रहा है। सारे मर्मस्थाुनों में अत्यं त पीड़ा हो रही है। मुंह सूखता जा रहा है। 'महाधनुर्धर अर्जुन! वेदना से पीड़ित शरीर वाले मुझ वृद्धको तुम पानी लाकर दो। तुम्हीं विधिपूर्वक मेरे लिये दिव्यए जल प्रस्तुत करने में समर्थ हो’। तब ‘बहुत अच्छाे’ कहकर पराक्रमी अर्जुन रथपर आरूढ़ हो गये और गाण्डीशव धनुष पर बलपूर्वक प्रत्य्ञ्चा चढ़ाकर उसे खींचने लगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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