महाभारत शल्य पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-23

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षोडश (16) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद

पाण्डव सैनिकों और कौरव सैनिकों का द्वन्द्वयुद्ध, भीमसेन द्वारा दुर्योधन की तथा युधिष्ठिर द्वारा शल्य की पराजय

संजय कहते हैं- प्रभो ! तदनन्तर आपके सभी सैनिक रणभूमि में मद्रराज को आगे करके पुनः बडे़ वेग से पाण्डवों पर टूट पडे़ । युद्ध के लिये उन्मत्त रहने वाले आपके सभी योद्धा यद्यपि पीड़ित हो रहे थे, तथापि संख्या में अधिक होने के कारण उन सब ने धावा बोलकर क्षणभर में पाण्डव योद्धाओं को मथ डाला । समरांगण में कौरवों की मार खाकर पाण्डव योद्धा श्रीकृष्ण और अर्जुन के देखते-देखते भीमसेन के रोकने पर भी वहाँ ठहर न सके । तदनन्तर दूसरी ओर क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने सेवकों सहित कृपाचार्य और कृतवर्मा को अपने बाणसमूहों से ढक दिया । सहदेव ने सेना सहित शकुनि को बाणों से आच्छादित कर दिया। नकुल पास ही खडे़ होकर मद्रराज शल्य की ओर देख रहे थे । द्रौपदी के पुत्रों ने बहुत-से राजाओं को आगे बढ़ने से रोक रखा था। पांचाल राजकुमार शिखण्डी ने द्रोणपुत्र अश्वत्थामा को रोक दिया। भीमसेन ने हाथ में गदा लेकर राजा दुर्योधन को रोका और सेना सहित कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने शल्य को । तत्पश्चात् संग्राम में मैंने राजा शल्य का बहुत बड़ा पराक्रम यह देखा कि वे अकेले ही पाण्डवों की सम्पूर्ण सेना के साथ युद्ध कर रहे थे । उस समय शल्य युधिष्ठिर के समीप रणभूमि में ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो चन्द्रमा के समीप शनैश्वर नामक ग्रह हो । वे विषधर सर्पों के समान भयंकर बाणों द्वारा राजा युधिष्ठिर को पीड़ित करके पुनः भीमसेन की ओर दौडे़ और उन्हें अपने बाणों की वर्षा से आच्छादित करने लगे । उनकी वह फुर्ती और अस्त्रविद्या का ज्ञान देखकर आपके और शत्रुपक्ष के सैनिकों ने भी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। शल्य के द्वारा पीड़ित एवं अत्यन्त घायल हुए पाण्डव सैनिक युधिष्ठिर के पुकारने पर भी युद्ध छोड़कर भाग चले।। अब मद्रराज के द्वारा इस प्रकार पाण्डव-सैनिक का संहार होने लगा, तब पाण्डवपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर अमर्षके वशीभूत हो गये । तदनन्तर उन्होंने अपने पुरूषार्थ का आश्रय ले मद्रराज पर प्रहार आरम्भ किया। महारथी युधिष्ठिर ने यह निश्चय कर लिया कि आज या तो मेरी विजय होगी अथवा मेरा वध हो जायेगा । उन्होंने अपने समस्त भाईयो तथा श्रीकृष्ण और सात्यकि को बुलाकर इस प्रकार कहा- बन्धुओं ! भीष्म, द्रोण, कर्ण तथा अन्य जो-जो राजा दुर्योधन के लिये पराक्रम दिखाये थे, वे सब-के-सब संग्राम में मारे गये। तुम लोगों ने पुरूषार्थ करके उत्साहपूर्वक अपने-अपने हिस्से का कार्य पूरा कर लिया । अब एकमात्र महारथी शल्य शेष रह गये हैं, जो मेरे हिस्से में पड़ गये हैं। अतः आज मैं इन मद्रराज शल्य को युद्ध में जीतने की आशा करता हूँ । इसके सम्बन्ध में मेरे मन में जो संकल्प है, वह सब तुम लोगों से बता रहा हूँ, सुनो । जो समरांगण में इन्द्र के लिये भी अजेय तथा शूरवीरों द्वारा सम्मानित हैं, वे दोनों माद्रीकुमार वीर नकुल और सहदेव मेरे रथ के पहियों की रक्षा करें । क्षत्रिय-धर्म को सामने रखते हुए ये सम्मान पाने के योग सत्यप्रतिज्ञ नकुल और सहदेव मेरे लिये समरांगण में अपने मामा के साथ अच्छी तरह युद्ध करें। फिर या तो शल्य रण- भूमि में मुझे मार डालें या मैं उनका वध कर डालूँ। आप लोगों का कल्याण हो । विश्वविख्यात वीरों ! तुम लोग मेरा यह सत्य वचन सुन लो। राजाओं! मैं क्षत्रियधर्म के अनुसार अपने हिस्से का कार्य पूर्ण करने का संकल्प लेकर अपनी विजय अथवा वध के लिये मामा शल्य के साथ आज युद्ध करूँगा । अतः रथ जोतने वाले लोग शीघ्र ही मेरे रथ पर शास्त्रीय विधि के अनुसार अधिक-से-अधिक शस्त्र तथा अन्य सब आवश्यक सामग्री सजाकर रख दे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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