महाभारत शल्य पर्व अध्याय 24 श्लोक 23-50

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चतुविंश 24) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: चतुविंश अध्याय: श्लोक 23-50 का हिन्दी अनुवाद
में धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को सर्वथा मूर्ख और नादान समझता हूँ, जिन्होंने शान्तनुनन्दन भीष्मजी के धराशायी होने पर भी पुनः युद्ध जारी रखा । तत्पश्चात् वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य, राधापुत्र कर्ण और विकर्ण मारे गये तो भी मार-काट बंद नहीं हुई।। पुत्रसहित नरश्रेष्ठ सूतपुत्र के मार गिराये जाने पर जब कौरव सेना थोड़ी-सी ही बच रही थी तो भी यह युद्ध की आग नहीं बुझी । श्रुतायु, वीर जलसन्ध पौरव तथा राजा श्रुतायुध के मारे जाने पर भी यह संहार बंद नहीं हुआ ।जर्नादन ! भुरिश्रवा, शल्य, शाल्व तथा अवन्ति देश के वीर मारे गये तो भी यह युद्ध की ज्वाला शांत न हो सकी । जयद्रथ, बाहिृक, सोमदत्त तथा राक्षस अलायुध-ये सभी परलोक वासी हो गये तो भी यह युद्ध की प्यास न बुझ सकी । भरदत्त, शूरवीर काम्बोजराज सुदक्षिण तथा अत्यन्त दारूण दुःशासन के मारे जाने पर भी कौरवों की युद्ध पिपासा शांत नहीं हुई । श्रीकृष्ण ! विभिन्न मण्डलों के स्वामी शूरवीर बलवान् नरेशों को रणभूमि में मारा गया देखकर भी यह युद्ध की आग बुझ न सकी । भीमसेन के द्वारा धराशायी किये गये अक्षौहिणीपतियों को देखकर भी मोहवश अथवा लोभ के कारण युद्ध बन्द न हो सका । राजा के कुल में उत्पन्न होकर विशेषत; कुरूकुल की संतान होकर दुर्योधन के सिवा दूसरा कौन ऐसा था, जो व्यर्थ ही (अपने बन्धुओं के साथ) महान् वैर बाँधे । दूसरों को गुण से, बल से अथवा शौर्य से भी अपनी अपेक्षा महान् जानकर भी अपने हित और अहित को समझने वाला मूढ़ताशून्य कौन ऐसा बुद्धिमान् पुरूष होगा ? जो उनके साथ युद्ध करेगा । आपके द्वारा हितकारक वचन कहे जानेपर भी जिसका पाण्डवों के साथ संधि करने का मन नहीं हुआ, वह दूसरे की बात कैसे सुन सकता है ?। जिसने संधि के विषय में वीर शान्तनुनन्दन भीष्म, द्रोणाचार्य और विदुर जी की भी बात मानने से इन्कार कर दी, उसके लिये अब कौन-सी दवा है ? । जर्नादन ! जिसने मूर्खतावश अपने वृद्ध पिता की भी बात नहीं मानी और हित की बात बतानेवाली अपने हितैषीणी माता का भी अपमान करके उनकी आज्ञा मानने से इन्कार कर दिया, उसे दूसरे किसी की बात क्यों रूचेगी ? । जर्नादन ! निश्चय ही यह अपने कुल का विनाश करनेवाला पैदा हुआ है। प्रजानाथ ! इसकी नीति और चेष्टा ऐसी ही दिखायी देती है । अच्युत ! में समझता हूँ, यह अब भी हमें अपना राज्य नहीं देगा । तात ! महात्मा विदुर ने मुझसे अनेक बार कहा है कि मानद ! दुर्योधन जीते-जी राज्य का भाग नहीं लौटायेगा । दुर्बुद्धि दुर्योधन के प्राण जबतक शरीर में स्थित रहेंगे, तबतक तुम निष्पाप बन्धुओं पर भी वह पापपूर्ण बर्ताव ही करता रहेगा । माधव ! युद्ध के सिवा और किसी उपाय से दुर्योधन को जीतना सम्भव नहीं है। यह बात सत्यदर्शी विदुर जी सदा से मुझे कहते आ रहे हैं । महात्मा विदुर ने जो बात कही है, उसके अनुसार में उस दुरात्मा के सम्पूर्ण निश्चय को आज जानता हूँ । जिस दुर्बुद्धि ने यमदग्निनन्दन परशुराम जी के मुख से यथार्थ एवं हितकारक वचन सुनकर भी उसकी अवहेलना कर दी, वह निश्चय ही विनाश के मुख में स्थित है । दुर्योधन के जन्म लेते ही सिद्ध पुरूषों ने बारंबार कहा था कि इस दुरात्मा को पाकर क्षत्रियजाति का विनाश हो जायगा।। जनार्दन ! उसकी यह बात यथार्थ हो गयी; क्योंकि दुर्योधन के कारण बहुत-से राजा नष्ट हो गये । माधव ! आज में रणभूमि में शत्रुपक्ष के समस्त योद्धाओं को मार गिराऊँगा। इस क्षत्रियों का शीघ्र ही संहार हो जानेपर जब सारा शिविर सूना हो जायगा, तब वह अपने वध के लिये हमलोगों के साथ जूझना पंसद करेगा। माधव ! मेंरे अनुमान से उसका वध होने पर ही इस वैरका अन्त होगा।। वृष्णिनन्दन ! में अपनी बुद्धि से, विदुरजी के वाक्य से और दुरात्मा दुर्योधन की चेष्टा भी सोच-विचारकर ऐसा ही होता देखता हूँ । अतः वीर ! महाबाहो ! आप कौरव-सेना की ओर चलिये, जिससे में पैने बाणों द्वारा युद्धस्थल में दुर्योधन और उनकी सेना का संहार करूँ । माधव ! आज में दुर्योधन के देखते-देखते इस दुर्बल सेना का नाश करके धर्मराज का कल्याण करूँगा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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