महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 90 श्लोक 66-80

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नवतितम (90) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 66-80 का हिन्दी अनुवाद

वह सत्‍तू खाकर भी ब्राह्मण देवता का पेट न भरा । यह देखकर उंछवृत्‍तिधारी धर्मात्‍मा ब्राह्मण बड़े संकोच में पड़ गये । उनकी पुत्र वधू भी बड़ी सुशील थी । वह ब्राह्मण का प्रिय करने की इच्‍छा से उनके पास जा बड़ी प्रसन्‍नता के साथ अपने उन श्‍वशुर देव से बोली-‘विप्रवर ! आपकी सन्‍तान से मुझे संतान प्राप्‍त होगी ; अत: आप मेरे परम पूज्‍य हैं । मेरे हिस्‍से का यह सत्‍तू लेकर आप अतिथि देवता को अर्पित कीजिये ।‘आपकी कृपा से मुझे अक्षय लोक प्राप्‍त हो गये । पुत्र के द्वारा मनुष्‍य उन लोको में जाते हैं, जहां जाकर वह कभी शोक में नहीं पड़ता। ‘जैसे धर्म तथा उससे संयुक्‍त अर्थ और काम – ये तीनों स्‍वर्ग की प्राप्‍ति कराने वाले हैं तथा जैसे आहवनीय, गार्हपत्‍य और दक्षिणाग्‍नि – ये तीनों स्‍वर्ग के साधन हैं, उसी प्रकार पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र – ये त्रिविध संताने अक्षय स्‍वर्ग की प्राप्‍ति कराने वाली हैं।‘हमने सुना है कि पुत्र पिता को पितृ – ऋण से छुटकारा दिला देता है । पुत्रों और पौत्रों के द्वारा मनुष्‍य निश्‍चय ही श्रेष्‍ठ लोकों में जाते हैं’। श्‍वशुर ने कहा – बेटी ! हवा और धूप के मारे तुम्‍हारा सारा शरीर सूख रहा है – शिथिल होता जा रहा है । तुम्‍हारी कान्‍ति फीकी पड़ गयी है । उत्‍तम व्रत और आचार का पालन करने वाली पुत्री ! तुम बहुत दुर्बल हो गयी हो । क्षुधा के कष्‍ट से तुम्‍हारा चित्‍त अत्‍यन्‍त व्‍याकुल है । तुम्‍हें ऐसी अवस्‍था में देखकर तुम्‍हारे हिस्‍से का सत्‍तू कैसे ले लूं । ऐसा करने से तो मैं धर्म की हानि करने वाला हो जाऊंगा । अत: कल्‍याणमय आचरण करने वाली कल्‍याणि ! तुम्‍हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ।तुम प्रतिदिन शौच, सदाचार और तपस्‍या में संलग्‍न रहकर छठे काल में भोजन करने का व्रत लिये हुए हो । शुभे ! बड़ी कठिनाई से तुम्‍हारी जीविका चलती है । आज सत्‍तू लेकर तुम्‍हें निराहार कैसे देख सकूंगा।एक तो तुम अभी बालिका हो, दूसरे भूख से पीड़ित हो रही हो, तीसरी नारी हो और चौथे उपवास करते – करते अत्‍यन्‍त दुबली हो गयी हो ; अत: मुझे सदा तुम्‍हारी रक्षा करनी चाहिये ; क्‍योंकि तुम अपनी सेवाओं द्वारा बान्‍धव जनों को आनन्‍दित करने वाली हो।पुत्रवधु बोली – भगवन् ! आप मेरे गुरु के भी गुरु, देवताओं के भी देवता और सामान्‍य देवता की अपेक्षा भी अतिशय उत्‍कृष्‍ट देवता हैं, अत: मेरा दिया हुआ यह सत्‍तू स्‍वीकार कीजिये। मेरा यह शरीर, प्राण और धर्म – सब कुछ बड़ों की सेवा के लिये ही है । विप्रवर ! आप के प्रसाद से मुझे उत्‍तम लोकों की प्राप्‍ति हो सकती है। अत: आप मुझे अपना दृढ़ भक्‍त, रक्षणीय और विचारणीय मानकर अतिथि को देने के लिये यह सत्‍तू स्‍वीकार कीजिये।श्‍वशुर ने कहा – बेटी ! तुम सती – साध्‍वी नारी हो और सदा ऐसे ही शील एवं सदाचार का पालन करने से तुम्‍हारी शोभा है । तुम धर्म तथा व्रत के आचरण में संलग्‍न होकर सर्वदा गुरुजनों की सेवा पर ही दृष्‍टि रखती हो ; इसलिये बहू ! मैं तुम्‍हे पुण्‍य से वंचित न होने दूंगा । धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ महाभागे ! पुण्‍यात्‍माओं में तुम्‍हारी गिनती करके मैं तुम्‍हारा दिया हुआ सत्‍तू अवश्‍य स्‍वीकार करूंगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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