महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 83 श्लोक 1-17

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त्र्यशीति (83) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्र्यशीति अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान, युधिष्ठिर का माता कुंती एवं कौरवों के लिए संदेश तथा श्रीकृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन

अर्जुन बोले – श्रीकृष्ण ! आजकल आप ही समस्त कौरवों के सर्वोत्तम सुहृद तथा दोनों पक्षों के नित्य प्रिय संबंधी हैं । केशव ! पांडवों सहित धृतराष्ट्र पुत्रों का मङ्गल सम्पादन करना आपका कर्तव्य है । आप उभयपक्ष में संधि कराने की शक्ति भी रखते हैं ।शत्रुओं का नाश करनेवाले कमलनयन श्रीकृष्ण ! आप यहाँ से जाकर हमारे अमर्षशील भ्राता दुर्योधन से ऐसी बातें करें, जो शांति स्थापन में सहायक हों ।यदि वह मूर्ख आपकी कही हुई धर्म और अर्थ से युक्त, संतापनाशक, कलयांकारी एवं हितकर बातें नहीं मानेगा तो अवश्य ही उसे काल के गाल में जाना पड़ेगा ।

श्रीभगवान बोले - अर्जुन ! जो धर्मसंगत, हम लोगों के लिए हितकर तथा कौरवों के लिए भी मंगलकारक हो, वही कार्य करने के लिए मैं राजा धृतराष्ट्र के समीप यात्रा करूँगा ।वैशम्पायन जी कहते हैं – जनमजेय ! तदनंतर जब रात्रि का अंधकार दूर हुआ और निर्मल आकाश में सूर्यदेव के उदित होने पर उनकी कोमल किरणें सब ओर फैल गयी । कार्तिक मास के रेवती नक्षत्र में 'मैत्र' नामक मुहूर्त उपस्थित होने पर सत्वगुनी पुरुषों में श्रेष्ठ एवं समर्थ श्रीकृष्ण ने यात्रा आरंभ की । उन दिनों शरद ऋतु का अंत और हेमंत का आरंभ हो रहा था । सब ओर खूब उपजी हुई खेती लहलहा रही थी । भगवान् जनार्दन ने सबसे पहले प्रात:काल ऋषियों के मुख से मङ्गल पाठ सुनने वाले देवराज इन्द्रकी भांति विश्वस्त ब्राह्मणों के मुख से परम मधुर मंगलकारक पुण्याहवाचन सुनते हुए स्नान किया । फिर उन्होनें पवित्र तथा वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो संध्यावंदन, सूर्योपस्थान एवं अग्निहोत्र आदि पूर्वाह्नकृत्य सम्पन्न किए । इसके बाद बैल की पीठ छूकर ब्राह्मणों को नमस्कार किया और अग्नि की परिक्रमा करके अपने सामने प्रस्तुत की हुई कल्याणकारक वस्तुओं का दर्शन किया । तदनंतर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की बातों पर विचार करके जनार्दन ने अपने पास बैठे हुए शिनीपौत्र सात्यिकी से इस प्रकार कहा -। 'युयुधान ! मेरे रथ पर शङ्ख, चक्र, गदा, तूणीर, शक्ति तथा अन्य सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लाकर रख दो । 'कोई अत्यंत बलवान् क्यों न हो, उसे अपने दुर्बल शत्रु की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए; ( उससे सतर्क रहना चाहिए । ) फिर दुर्योधन, कर्ण और शकुनि तो दुष्टात्मा ही हैं । उनसे तो सावधान रहने की अत्यंत आवश्यकता है ॥ तब चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण के अभिप्राय को जानकार उनके आगे चलनेवाले सेवक रथ जोतने के लिए दौड़ पड़े ।वह रथ प्रलयकालीन अग्नि के समान दीप्तिमान , विमान के समान सदृश शीघ्रगामी तथा सूर्य और चंद्रमा के समान तेजस्वी दो गोलाकार चक्रों से सुशोभित था । अर्धचंद्र, चंद्र, मत्स्य, मृग, पक्षी, नाना प्रकार के पुष्प तथा सभी तरह के मणि-रत्नों से चित्रित एवं जटित होने के कारण उसकी विचित्र शोभा हो रही थी । वह तरुण सूर्य के समान प्रकाशमान, विशाल तथा देखने में मनोहर था । उसके सभी भागों में मणि एवं सुवर्ण जड़े हुए थे । उस रथ की ध्वजा बहुत ही सुंदर थी और उस पर उत्तम पताका फहरा रही थी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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