महाभारत आदि पर्व अध्याय 63 श्लोक 93-110
त्रिषष्टितम (63) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
‘धर्मराज ! पहले कभी मैंने बाल्यवस्था के कारण सींक से एक चिडि़ये के बच्चे को छेद दिया था। वही एक पाप मुझे याद आ रहा है। अपने दूसरे किसी पाप का मुझे स्मरण नहीं है ।। ‘मैंने अगणित सहस्त्र गुणा तप किया है। फिर उस तप ने मेरे छोट-से पाप को क्यों नहीं नष्ट कर दिया। ब्राह्मण का वध समस्त प्राणियों के वध से बड़ा है। ‘(तुमने मुझे शूली पर चढवाकर वही पाप किया है) इसलिये तुम पापी हो। अतः पृथ्वी पर शूद्र की योनि में तुम्हें जन्म लेना पड़ेगा। ‘अणीमाण्डव्य के उस शाप से धर्म भी शूद्र की योनि में उत्पन्न हुए। पाप रहित विद्वान विदुर के रूप में धर्मराज का शरीर ही प्रकट हुआ था। उसी समय गवल्गण से संजय नामक सूत का जन्म हुआ, जो मुनियों के समान ज्ञानी और धर्मात्मा थे। राजा कुन्तिभोज की कन्या कुन्ती के गर्भ से सूर्य के अंश से महाबली कर्ण की उत्पत्ति हुई। वह बालक जन्म के साथ ही कवचधारी था। उस मुख शरीर के साथ ही उत्पन्न हुए कुण्डल की प्रभा से प्रकाशित होता था। उन्हीं दिनों विश्ववन्दित महायशस्वी भगवान विष्णु जगत की जीवों पर अनुग्रह करने के लिये वसुदेवजी के द्वारा देवकी के गर्भ से प्रकट हुए। वे भगवान आदि-अन्त से रहित, धुतिमान, सम्पूर्ण जगत के कर्ता तथा प्रभू हैं। उन्हीं को अव्यक्त अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म और त्रिगुणमय प्रधान कहते हैं।
आत्मा, अव्यय, प्रकृति (उपादान), प्रभव (उत्पत्ति-कारण), प्रभु (अधिष्ठाता), पुरूष (अन्तर्यामी), विश्वकर्मा, सत्तवगुण से प्राप्त होने वाले तथा प्रणवाक्षर वे ही हैं; उन्हीं को अनन्त, अचल, देव, हंस, नारायण, प्रभु, धाता, अजन्मा, अव्यक्त, पर, अव्यय, कैवल्य, निरगुण, विश्वरूप, अनादि, जन्मरहित और अविकारी कहा गया है। वे सर्वव्यापी, परम पुरूष परमात्मा, सबके कर्ता और सम्पूर्ण भूतों के पितामह हैं। उन्होंने ने ही धर्म की वृद्वि के लिये अन्धक और वृष्णि कुल में बलराम और श्रीकृष्ण रूप में अवतार लिया था। वे दोनों भाई सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता, महापराक्रमी और समस्त शास्त्रों के ज्ञान में परम प्रवीण थे। सत्य से सात्यकि और हृदिक से कृतवर्मा का जन्म हुआ था। वे दोनों अस्त्र विद्या में अत्यन्त निपुण और भगवान श्रीकृष्ण के अनुगामी थे। एक समय उग्र तपस्वी महर्षि भारद्वाज का वीर्य किसी द्रोणी (पर्वत की गुफा) में स्खलित होकर धीरे-धीरे पुष्ट होने लगा। उसी से द्रोण का जन्म हुआ। किसी समय गौतम गोत्रीय शरद्वान का वीर्य सरकंडे के समूह पर गिरा और दो भागों में बंट गया। उसी से एक कन्या और एक पुत्र का जन्म हुआ। कन्या का कृपि था, जो अश्वत्थामा की जननी हुई। पुत्र महाबली कृप के नाम से विख्यात हुआ। तदनन्तर द्रोणाचार्य से महाबली अश्वत्थामा का जन्म हुआ। इसी प्रकार यज्ञ कर्म का अनुष्ठान करते समय प्रज्वलित अग्नि से धृष्टद्युम्न का प्रादुर्भाव हुआ, जो साक्षात अग्निदेव के समान तेजस्वी था। पराक्रमी वीर धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्य का विनाश करने के लिये धनुष लेकर प्रकट हुआ था। उसी यज्ञ की वेदी से शुभस्वरूपा तेजस्विनी द्रौपदी उत्पन्न हुई, जो परम उत्तम रूप धारण करके अपने सुन्दर शरीर से अत्यन्त शोभा पा रही थी।
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