महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 79 श्लोक 52-65

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एकोनाशीतितम (79) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: श्लोक 52-65 का हिन्दी अनुवाद

अथवा उन्हीं दोनों के हाथों मारा जाकर सदा के लिये सो जाऊॅगा; क्योंकि रण में विजय अनिश्चित होती है। आज में उन दोनों को मारकर अथवा मारा जाकर सर्वथा कृतार्थ हो जाऊॅगा। शल्य ने कहा- कर्ण! रथियों में प्रमुख वीर अर्जुन अकेले भी हों तो महारथी योद्धा उन्हें युद्ध में अजेय बताते हैं, फिर इस समय तो वे श्रीकृष्ण से सुरक्षित हैं; ऐसी दशा में कौन इन्हे जीतने का साहस कर सकता है ? कर्ण बोला-शल्य ! मेंने जहां तक सुना है, वहां तक संसार ऐसा श्रेष्ठ महारथी वीर कभी नहीं उत्पन्न हुआ, ऐसे कुन्तीकुमार अर्जुन के साथ में महासमर में युद्ध करूंगा, मेरा पुरूषार्थ देखो। ये रथियों में प्रधान वीर कौरवराजकुमार अर्जुन अपने श्वेत अश्वों द्वारा रणभूमि में विचर रहे हैं। ये आज मुझे मृत्यु के संकट में डाल देंगे और मुझ कर्ण का अन्त होने पर कौरदल के अन्य समस्त योद्धाओं का विनाश भी निश्चित ही है।राजकुमार अर्जुन के दोनों विशाल हाथों में कभी पसीना नहीं होता, उसमें धनुष की पात्यंचा के चिन्ह्र बन गये हैं और वे दोनों हाथ कांपते नहीं हैं। उनके अस्त्र-शस्त्र भी सृदढ़ हैं। वे विद्वान् एवं शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले हैं।
पाण्डुपुत्र अर्जुन के समान दूसरा कोई योद्धा नहीं हैं। वे कंकपत्रयुक्त अनेक बाणों को इस प्रकार हाथ में लेते हैं, मानो एक ही बाण हो और उन सबको शीघ्रतापूर्वक धनुषपर रखकर चला देते हैं। वे अमोघ बाण एक कोस दूर जाकर गिरते हैं; अतः इस पृथ्वी पर उनके समान दूसरा योद्धा कौन है ? उन वेगशाली और अतिरथी वीर अर्जुन ने अपने दूसरे साथी श्रीकृष्ण के साथ जाकर खाण्डववन में अग्निदेव को तृप्त किया था, जहां महात्मा श्रीकृष्ण को तो चक्र मिला और पाण्डुपुत्र सव्यसाची अर्जुन ने गाण्डीव धनुष प्राप्त किया। उदार अन्तःकरण वाले महाबाहु अर्जुन ने अग्निदेव से श्वेत घोडों से जुता हुआ गम्भीर घोष करनेवाला एवं भयंकर रथ, दो दिव्य विशाल और अक्षय तरकस तथा अलौकिक अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये। उन्‍होंने इन्द्रलोक में जाकर असंख्य कालकेषनामक सम्पूर्ण दैत्यों का संहार किया और वहां देवदत्त नामक शंख प्राप्त किया; अतः इस पृथ्वी पर उनसे अधिक कौन है ? जिस महानुभाव ने अस्त्रों द्वारा उत्तम युद्ध करके साक्षात् महादेवजी को संतुष्ट किया और उनसे त्रिलोकी का संहार करने में समर्थ अत्यन्त भयंकर पाशुपतनामक महान् अस्त्र प्राप्त कर लिया। भिन्न-भिन्न लोकपालों ने आकर उन्हें ऐसे महान् अस्त्र प्रदान किये, जो युद्धस्थल में अपना सानी नहीं रखते। उन पुरूषसिंह ने रणभूमि में उन्हीं अस्त्रों द्वारा संगठित होकर आये हुए कालकेय नामक असुरों का शीघ्र ही संहार कर डाला।।
इसी प्रकार विराटनगर में एकत्र हुए हम सब लोगों को एकमात्र रथ के द्वारा युद्ध में जीतकर अर्जुन ने उस विराटका गोधन लौटा जिया और महारथियों के शरीरों से वस्त्र भी उतार लिये।। शल्य! इस प्रकार जो पराक्रम सम्बन्धी गुणों से सम्पन्न, श्रीकृष्ण की सहायता से युक्त और क्षत्रियों में सर्वश्रेष्ठ हैं, उन्हें युद्ध के लिये ललकारना सम्पूर्ण जगत् के लिये बहुत बडे़ साहस का काम है; इस बात को में स्वयं ही जानता हूं। अर्जुन उन अनन्त पराक्रमी, उपमारहित, नारायणावतार, हाथों में शंख, चक्र और खग धारण करनेवाले, विष्णुस्वरूप, विजयशील, वसुदेवपुत्र महात्मा भगवान् श्रीकृष्ण से सुरक्षित हैं; जिनके गुणों का वर्णन सम्‍पूर्ण जगत के लोग मिलकर दस हजार वर्षों में भी नहीं कर सकते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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