महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 69 श्लोक 19-35

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अष्‍टषष्टितम (68) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व:अष्‍टषष्टितमअध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद



जो स्‍वयं धर्म का अनुसरण एवं आचरण करके शिष्‍यों द्वारा उपासित होकर उन्‍हें धर्म का उपदेश देते है; धर्म के संक्षेप एवं विस्‍तार को जानने वाले उन गुरुजनों का इस विषय में क्‍या निर्णय है, इसे तुम नहीं जानते । पार्थ। उस निर्णयको न जानने वाला मनुष्‍य कर्तव्‍य और अकर्तव्‍य के निश्चय में तुम्‍हारे ही समान असमर्थ, विवेक शूनय एवं मोहित हो जाता है । कर्तव्‍य और अकर्तव्‍य का ज्ञान किसी तरह भी अनायास ही नहीं हो जाता है। वह सब शास्‍त्र से जाना जाता है और शास्‍त्र का तुम्‍हें पता ही नहीं है । कुन्‍तीनन्‍दन। तुम अज्ञानवश अपने को धर्मज्ञ मानकर जो धर्म की रक्षा करने चले हो, उसमें प्राणिहिनता का पाप है, यह बात तुम्‍हारे जैसे धार्मिक की समझ में नहीं आती है । तात। मेरे विचार से प्राणियों की हिंसा न करना ही सबसे श्रेष्‍ठ धर्म है। किसी की प्राणरक्षा के लिये झूठ बोलना पड़े तो बोल दे, किंतु उसकी हिंसा किसी तरह न होने दे । नरश्रेष्‍ठ । तुम दूसरे गवांर मनुष्‍य के समान अपने बड़े भाई धर्मज्ञ नरेश का वध कैसे करोगे । मानद। जो युद्ध न करता हो, शत्रुता न रखता हो,संग्राम से विमुख होकर भागा जा रहा हो, शरण में आता हो, हाथ जोड़कर आश्रय में आ पड़ा हो तथा असावधान हो, ऐसे मनुष्‍य का वध करना श्रेष्‍ठ पुरुष अच्‍छा नहीं समझते हैं। तुम्‍हारे बड़े भाई में उपर्युक्त सभी बातें हैं । पार्थ। तुमने नासमझ बालक के समान पहले कोई प्रतिज्ञा कर ली थी, इसलिये तुम मूर्खतावश अधर्मयुक्त कार्य करने को तैयार हो गये हो । कुन्‍तीकुमार। बताओ तो तुम धर्म के सुक्ष्‍म एवं दुर्बोध स्‍वरुप का अच्‍छी तरह विचार किये बिना ही अपने ज्‍येष्‍ठ भ्राता का वध करने के लिये कैसे दौड़ पड़े । पाण्‍डुनन्‍दन। मैं तुम्‍हें यह धर्म का रहस्‍य बता रहा हूं। धनंजय। पितामह भीष्‍म, पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर, विदुरजी तत्‍व का उपदेश कर सकते हैं, उसी को मैं ठीक-ठीक बता रहा हूं। इसे ध्‍यान देकर सुनो । सत्‍य बोलना उत्तम है। सत्‍य से बढ़कर दूसरा कुछ नहीं है; परंतु यह समझ लो कि सत्‍पुरुषों द्वारा आचरण में लाये हुए सत्‍य के यथार्थ स्‍वरुप का ज्ञान अत्‍यन्‍त कठिन होता है । जहां मिथ्‍या बोलने का परिणाम सत्‍य बोलने के समान मंगलकारक हो अथवा जहां सत्‍य बोलने का परिणाम असत्‍य भाषण के समान अनिष्टकारी हो, वहां सत्‍य नहीं बोलना चाहिये। वहां असत्‍य बोलना ही उचित होगा । विवाह काल में, स्‍त्रीप्रसंग के समय, प्राणों पर संकट आने पर, सर्वस्‍व का अपहरण होते समय तथा ब्राह्मण की भलाई के लिये आवश्‍यकता हो तो असत्‍य बोल दे; इन पांच अवसरों पर झूठ बोलने से पाप नहीं होता । जब किसी का सर्वस्‍व छीना जा रहा हो तो उसे बचाने के लिये झूठ बोलना कर्तव्‍य है। वहां असत्‍य ही सत्‍य और सत्‍य ही असत्‍य हो जाता है। जो मूर्ख है, वही यथाकथच्चित व्‍यवहार में लाये हुए एक जैसे सत्‍य को सर्वत्र आवश्‍यक समझता है । केवल अनुष्ठान में लाया गया असत्‍यरुप सत्‍य बोलने योग्‍य नहीं होता, अत: वैसा सत्‍य न बोले। पहले सत्‍य और असत्‍व का अच्‍छी तरह निर्णय करके जो परिणाम में सत्‍य हो उसका पालन करे। जो ऐसा करता है, वही धर्म का ज्ञाता है ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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