महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 69 श्लोक 52-66
एकोनसप्ततितम (68) अध्याय: कर्ण पर्व
तब उन निर्दयी डाकुओं ने उन सबका पता पाकर उन्हें मार डाला, ऐसा सुना गया है। इस तरह वाणी का दुरुपयोग करने से कौशिक को महान् पाप लगा, जिससे उसे नरक का कष्ट भोगना पड़ा; क्योंकि वह धर्म के सूक्ष्म स्वरुप को समझने में कुशल नहीं था । जिसे शास्त्रों का बहुत थोड़ा ज्ञान है, जो विवेकशून्य होने के कारण धर्मों के विभाग को ठीक-ठीक नहीं जानता, वह मनुष्य यदि वृद्ध पुरुषों से अपने संदेह नहीं पूछता तो अनुचित कर्म कर बैठने के कारण वह माहन् नरक के सदृश कष्ट भोगने के योग्य हो जाता है । धर्माधर्म के निर्णय के लिये तुम्हें संक्षेप से कोई संकेत बताना पड़ेगा, जो इस प्रकार होगा। कुछ लोग परम ज्ञान रुप दुष्कर धर्म को तर्क के द्वारा जानने का प्रयत्न करते हैं; परंतु एक श्रेणी बहुसंख्यक मनुष्य ऐसा कहते हैं कि धर्म का ज्ञान वेदों से होता है । किंतु मैं तुम्हारे निकट इन दोनों मतों के ऊपर कोई दोषारोपण नहीं करता; परंतु केवल वेदों के द्वारा सभी धर्म कर्मों का विधान नहीं होता; इसलिये धर्मज्ञ महर्षियों ने समस्त प्राणियों के अभ्युदय और नि:श्रेयस के लिये उत्तम धर्म का प्रतिपादन किया है । सिद्धान्त यह है कि जिस कार्य में हिंसा न हो, वही धर्म है। महर्षियों ने प्राणियों की हिंसा न होने देने के लिये ही उत्तम धर्म का प्रवचन किया है । धर्म ही प्रजा को धारण करता है और धारण करने के कारण ही उसे धर्म कहते हैं। इसलिये जो धारण प्राण रक्षा से युक्त हो-जिसमें किसी भी जीव की हिंसा न की जाती हो, वह धर्म है। ऐसा ही धर्म-शास्त्रों का सिद्धान्त है । जो लोग अन्यायपूर्वक दूसरों के धन आदि का अपहरण कर लेना चाहते हैं, वे कभी अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये दूसरों से सत्यभाषण रुप धर्म का पालन कराना चाहते हो तो वहां उनके समक्ष मौन रहकर उन से पिण्ड छुड़ाने की चेष्टा करे, किसी तरह कुछ बोले ही नहीं । किंतु यदि बोलना अनिवार्य हो जाय अथवा न बोलने से लुटेरों को संदेह होने लगे तो वहां असत्य बोलना ही ठीक है। ऐसे अवसर पर उस असत्य को ही बिना विचारे सत्य समझो । जो मनुष्य किसी कार्य के लिये प्रतिज्ञा करके उसका प्रकारान्तर उपपादन करता है, वह दम्भी होने के कारण उसका फल नहीं पाता, ऐसा मनीषी पुरुषों का कथन है । प्राणसंकट काल में, विवाह में समस्त कुटुम्बियों के प्राणान्त का समय उपस्थित होने पर तथा हंसी-परिहास आरम्भ होने पर यदि असत्य बोला गया हो तो वह असत्य नहीं माना जाता। धर्म के तत्व को जानने वाले विद्धान् उक्त अवसरों पर मिथ्य बोलने में पाप नहीं समझते । जो झूठी शपथ खाने पर लुटेरों के साथ बन्धन में पड़ने से छुटकारा पा सके, उसके लिये वहां असत्य बोलना ही ठीक है। उसे बिना विचारे सत्य समझना चाहिये । जहां तक वश चले, किसी तरह उन लुटेरों को धन नहीं देना चाहिये; क्योंकि पापियों को दिया हुआ धन दाता को भी दुख देता है । अत: धर्म के लिये झूठ बोलने पर मनुष्य असत्य भाषण के दोष का भागी नहीं होता। अर्जुन। मैं तुम्हारा हित चाहता हूं, इसलिये आज मैंने अपनी बुद्धि और धर्म के अनुसार संक्षेप से तुम्हारे लिये यह विधिपूर्वक धर्माधर्म के निर्णय का संकेत बताया है। यह सुनकर अब तुम्हीं बताओ, क्या अब भी राजा युधिष्ठिर तुम्हारे वध्य हैं ।
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