महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 37 श्लोक 21-49
सप्तत्रिंश (37) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
भगवान श्रीकृष्ण बोली- नृपश्रेष्ठ अब आप अत्यंत हठपूर्वक शोक को ही पकडे न रहें भगवान व्यास जो आज्ञा देते है वही करें ।
महाबाहु जैसे वर्षाकाल में लोग मेघ की और टकटकी लगाए देखते हैं उससे जल की यातना करते हैं उसी प्रकार ये सारे ब्राह्माण और आपके लिए महातेजस्वी भाई आपसे धैर्य धारण करने की प्रार्थना करते हुए आप के पास बैठे है । महाराज ! मरने से बचे हुए राजा लोग और चारों वर्णों की प्रजा से युक्त यह सारा कुरु जागल देश इस समय आप की सेवा में उपस्थित है । शत्रुओं को मारने और संताप देने वाले नरेश इस महामना ब्राह्माणों का प्रिय करने के लिए भी आपको उनकी बात मान लेनी चाहिए आप अमित तेजस्वी गुरुदेव व्यासजी की आज्ञा से हम सुह्दयों का और द्रोपदी का प्रिय कीजिए तथा संपूर्ण जगत के हित साधना में लग जाइये । वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेयजय श्रीकृष्ण के कहने पर कमल नयन महान मनस्वी राजा युधिष्ठिर संपूर्ण जगत के हित के लिए उठ खड़े हुए । पुरुषसिंह साक्षात भगवान श्रीकृष्ण द्वेपायन व्यासदेव स्थान अर्जुन तथा अन्य बहुत से लोगों के समझाने-बुझाने पर महानयस्वी युधिष्ठिर ने मानसिक दुख और संताप को त्याग दिया ।
पांडूनंदन युधिष्ठिर ने श्रेष्ठ पुरुषों के उपदेश को सुना था वेदशास्त्रो के ज्ञान की तो वे निधि ही थे सुने हुए शास्त्र तथा सुनने योग्य नीति ग्रंथों के विचार में भी वे कुशल थे उन्होंने अपने कर्तव्य का नीति ग्रन्थों के विचार में भी वे कुशल थे उन्होंने अपने कर्तव्य का निश्चय करके मन में पूर्ण शान्ति पा ली थी । नक्षत्रों से गिरे हुए चंद्रमा के समान राजा युधिष्ठिर वहाँ आये हुए सब लोगों से गिरकर धृतराष्ट्र को आगे कर के अपनी राजधानी हस्तिनापुर को चल दिए । नगर में प्रवेश करते समय धर्मज्ञ कुंती पुत्र युधिष्ठिर ने देवताओं तथा सहस्त्रों ब्राह्माणों का पूजन किया तदंतर कंबल और मृग चर्म से ढके हुए एक नूतन उज्जवल रथ पर जिसकी पवित्र मंत्रों द्वारा पूजा की गई थी तथा जिस में शुभ लक्षण संपन्न सोलह सफेद बेल जुड़े हुए थे वे बंदी जनों के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए उसी प्रकार सवार हुए जैसे चंद्रदेव अपने अमृतमय रथ पर आरुढ़ होते हैं । भयानक पराकर्मी कुंती पुत्र भीष्म भीमसेन ने उन बेलों की रास संभाली। अर्जुन ने तेजस्वी श्वेत छत्र धारण किया ।रथ के ऊपर तना हुआ श्वेत छत्र आकाश में तारिकाओं के समान श्वेत बादल के समान शोभा पाता था । उस समय मोद्री के वीर पुत्र नकुल और सहदेव चंद्रमा की किरणों के समान चमकीले रत्न से विभूषित श्वेत चवर और व्यंजन हाथों में ले लिये । राजन वस्त्राभूषण से विभूषित हुए पांचों भाई रथ पर बैठकर मूर्तिमान पांच महाभूतों के समान दिखाई देते थे । नरेश्वर मन के समान वेगशाली घोडों से जुते हुए रथ पर आरुढ़ हो युयुत्सु ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठर के पीछे पीछे चले ।
शैब्य और सुग्रीव नामक घोडों से जुडे़ हुए सुंदर स्वर्णमय रथ पर आरुढ़ हो सात्यकि सहित श्री कृष्ण कौरवों के पीछे पीछे गए । भरतनंदन कुंती पुत्र धर्म राज युधिष्ठिर के जेष्ठ पिता (ताउ) गान्धारी सहित पालकी में बैठकर उसके आगे आगे जा रहे थे ।इन सबके पीछे कुंती और द्रौपदी आदि गुरुकुल की वे सभी स्त्रियाँ तथा यथा योग्य भिन्न भिन्न सवारियों पर चक्कर चल रही थी जिनके पीछे विदुरजी थे जो इन सब की देखभाल करते थे। तदंतर सबके पीछे हाथी और घोडे़ से विभूषित बहुत रथी, पैदल और घुड़सवार सैनिक चल रहे थे । इस प्रकार वैतालिकों सुतों और मागवों द्वारा सुंदर वाणी में अपनी स्तुती सुनते हुए राजा युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया। महाबाहू युधिष्ठिर की यह सामूहिक यात्रा (जुलूस) इस भूतल पर अनुपम थी उसमें हष्ट पुष्ट मनुष्य भरे हुए थे भीड़ पर भीड़ बढ़ती जा रही थी और बडे़ जोर से जयघोष कोलाहल हो रहा था । राजा युधिष्ठिर की इस यात्रा के समय नगर निवासी मनुष्यों ने समूचे नगर तथा वहाँ की सड़कों को अच्छी तरह से सजा दिया था। सफेद मालाओं पताकाओं से नगर भूमि की अद्भुत सभा हो रही थी राजमार्ग को झाड–बुहार कर वहां छिडकाव किया गया था और धुपों की सुगंध फैलाई गयी थी । राजमहल के आसपास चारों और सुगंधित चुर्ण बिखेरे गए थे नाना प्रकार के फूलों, बेलों और पुष्पहारों की बंधन वारों से उसे अच्छी तरह सुसज्जित किया गया था। नगर के द्वार पर जल से भरे हुए नुतन एवं सुदृढ़ कलस रखे गये थे जगह जगह सफेद फूलो के गुच्छे रख दिये गये थे । अपने सुहृदों से गिरे हुए पांण्डु नंदन युधिष्ठिर ने इस प्रकार सजे सजाए द्वार वाले नगर-हस्तिनापुर में प्रवेश किया। उस समय सुंदर वचनो द्वारा उनकी स्तुती की जा रही थी।
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