महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 44 श्लोक 1-16

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चतुश्चत्वारिंश (44) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुश्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

महाराज युधिष्ठिर के दिये हुए विभिन्न भवनों में भीमसेन आदि सब भाइयों का प्रवेश और विश्राम

वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने मन्त्री, प्रजा आदि सारी प्रकृतियों को बिदा किया। राजा की आज्ञा पाकर सब लोग अपने-अपने घर को चले गये। इसके बाद श्रीमान् महाराज युधिष्ठिर ने भयानक पराक्रमी भीूसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव को सान्त्वना देते हुए कहा-। ‘बन्धुओं ! इस महासमर में शत्रुओं ने नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा तुम्हारे शरीर को घायल कर दिश है। तुम सब लोग अत्यन्त थक गये हो और शोक तथा क्रोध ने तुम्हें संतप्त कर दिया है। ‘भरतश्रेष्ठ वीरों ! तुमने मेरे लिये वन में रहकर जैसे कोई भाग्सहीन मनुष्य दुःख भोगता है, उसी प्रकार दुःख और कष्ट भोगे हैं। ‘अब इस समय तुम लोग सुख पूर्वक जी भरकर इस विजयजनित आनन्द का अनुभव करो। अच्छी तरह विश्राम करके जब तुम्हारा चित्त स्वस्थ हो जाय, तब फिर कल तुम लोगों से मिलूँगा’। तदनन्तर धृतराष्ट्र की आज्ञा से भाई युधिष्ठिर ने दुर्योधन का महल भीमसेन को अर्पित किया।
वह बहुत सी अट्टालिकाओं सक सुशोभित था। वहाँ अनेक प्रकार के रत्नों का भण्डार पड़ा था और बहुत सी दास-दासियाँ सेवा के लिये प्रस्तुत थीं। जैसे इन्द्र अपने भवन में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार महाबाहु भीमसेन उस महल में चले गये। जैसा दुर्योधन का भवन सजा हुआ था, वैसा ही दुःशासन का भी था। उसमें भी प्रसादमालाएँ शोभा दे रही थीं। वह सोने की बंदनवारों से सजाया गया था। प्रचुर धन-धान्य तथा दास-दासियों से भरा पूरा था। राजा की आज्ञा से वह भवन महाबाहु अर्जुन को मिला। दुर्पर्षण का महल तो दुःशासन के घर से भी सुन्दर था। उसे सोने और मणियों से सजाया गया था; अतः वह कुबेर के राजभवन की भाँति प्रकाशित होता था। महाराज ! धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने अत्यन्त प्रसन्न होकर महान् वन में कष्ट उठाये हुए, वर पाने के अणिकारी नकुल को दुर्मर्षण का वह सुन्दर भवन प्रदान किया। दुर्मुख का भवन तो और भी सुन्दर था। उसे सुवर्ण से सुसज्जित किया गया था। खिले हुए कमलदल के समान नेत्रों वाली सुन्दर स्त्रियों की शय्याओं से भरा हुआ वह भवन युधिष्ठिर ने सदा अपना प्रिय करने वाले सहदेव को दिया। जैसे कुबेर कैलास को पाकर संतुष्ट हुए थे, उसी प्रकार उस सुन्दर महल को पाकर सहदेव को बड़ी प्रसन्नता हुई। प्रजानाथ ! युयुत्सु, विदुर, संजय, सुधर्मा और धौम्य मुनि भी अपने अपने पहले के ही घरों में गये। जैसे व्याघ्र पर्वत की कछरा में प्रवेश करता है, उसी प्रकार सात्यकि सहित पुरुषसिंह श्रीकृष्ण ने अर्जुन के महल में पदार्पण किया। वहाँ अपने-अपने स्थानों पर खान-पान से संतुष्ट हो वे सब लोग रात भर बड़े सुख से सोये और सबेरे उठकर राजा युधिष्ठिर की सेवा में उपस्थित हो गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में गृहों का विभाजन विषयक चैंवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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