महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 88 श्लोक 1-13
अष्टाशीतितम (88) अध्याय: कर्ण पर्व
अर्जुन द्वारा कौरव सेना का संहार, अश्वत्थामा का दुर्योधन से संधि के लिये प्रस्ताव और दुर्योधन द्वारा उसकी अस्वीकृति
संजय कहते हैं- महाराज ! उस समय आकाश में देवता, नाग, असुर, सिद्ध, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, अप्सराओं के समुदाय, ब्रह्यर्षि, राजर्षि और गरूढ़- ये सब जुटे हुए थे। इन के कारण आकाश का स्वरूप अत्यन्त आश्चर्यमय प्रतीत होता था। नाना प्रकार के मनोरम शब्दों, वाद्यों, गीतों, स्तोत्रों, नृत्यों और हास्य आदि से आकाश मुखरित हो उठा। उस समय भूतल के मनुष्य और आकाशचारी प्राणी सभी उस आश्चर्यमय अन्तरिक्ष की ओर देख रहे थे। तदनन्तर कौरव और पाण्डवपक्ष के समस्त योद्धा बडे़ हर्ष में भरकर वाद्य, शंखध्वनि, सिंहनाद और कोलाहल से रणभूमि एवं सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए समस्त शत्रुओं का संहार करने लगे। उस समय हाथी, अश्व, रथ और पैदल सैनिकों से भरा हुआ बाण, खग, शक्ति और ऋषि आदि अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार से दुःसह प्रतीत होने वाला एवं मृतकों के शरीर से व्याप्त हुआ वह वीर से वित समरांगण खून से लाल दिखायी देने लगा। जैसे पूर्वकाल में देवताओं का असुरों के साथ संग्राम हुआ था, उसी प्रकार पाण्डवों का कौरवों के साथ युद्ध होने लगा। अर्जुन और कर्ण के बाणों से वह अत्यन्त दारूण तुमुल युद्ध आरम्भ होने पर वे दोनों कवचधारी वीर अपने पैने बाणों से परस्पर सम्पूर्ण दिशाओं तथा सेना को आच्छादित करने लगे। तत्पश्चात् आपके और शत्रुपक्ष के सैनिक जब बाणों से फैले हुए अन्धकार में कुछ भी देख न के, वह भय से आतुर हो उन दोनों प्रधान रथियों की शरण में आ गये। फिर तो चारों ओर अदभुत युद्ध होने लगा।
तदनन्तर जैसे पुर्व और पश्चिम की हवाएँ एक दुसरी को दबाती हैं, उसी प्रकार वे दोनों वीर एक दूसरे के अस्त्रों को अपने अस्त्रों द्वारा नष्ट करके फैले हुए प्रगाढ़ अन्धकार में उदित हुए सूर्य और चन्द्रमा के समान अत्यन्त प्रकाशित होने लगे। किसी को युद्ध से मुँह मोड़कर भागना नहीं चाहिये इस नियम से प्रेरित होकर आपके और शत्रुपक्ष के सैनिक उन दोनों महारथियों को चारों ओर से घेरकर उसी प्रकार युद्ध में डटे रहे, जैसे पूर्वकाल में देवता और असुर, इन्द्र और शम्बरासुर को घेरकर खडे़ हुए थे। दोनों दलों में होती हुई मृदंग, भेरी, पवण और आनक आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ वे दोनों नरश्रेष्ठ जोर-जोर से सिंहनाद कर रहे थे, उस समय वे दोनों पुरूषरत्न मेंघों की गम्भीर गर्जना के साथ उदित हुए चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाशित हो रहे थे। रणभूमि में दोनों वीर चराचर जगत् को दग्ध करने की इच्छा से प्रकट हुए प्रलयकाल के दो सूर्यों के समान शत्रुओं के लिये दुःसह हो रहे थे। कर्ण और अर्जुनरूप वे दोनों सूर्य अपने विशाल धनुषरूपी मण्डल के मध्य में प्रकाशित होते थे। सहस्त्रों बाण ही उनकी किरण थे और वे दोनों ही महान् तेज से सम्पन्न दिखायी देते थे। दोनों ही अजेय और शत्रुओं का विनाश करनेवाले थे। दोनों ही अस्त्र-शस्त्रों के विद्वान् और एक दूसरे के वध की इच्छा रखनेवाले थे। कर्ण और अर्जुन दोनों वीर इन्द्र और जम्भासुर के समान उस महासमर में निर्भय विचरते थे। नरेश्वर ! वे महाधनुर्धर और महारथी वीर महान् अस्त्रों का प्रयोग करते हुए अपने भयानक बाणों द्वारा असंख्य मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों का संहार करते हुए आपस में भी एक दूसरे को चोट पहुँचाते थे। जैसे सिंह के द्वारा घायल किये हुए जंगली पशु सब ओर भागने लगते हैं, उसी प्रकार उन नरश्रेष्ठ वीरों के द्वारा बाणों से पीड़ित किये हुए कौरव तथा पाण्डवसैनिक हाथी, घोडे़, रथ और पैदलों सहित दसों दिशाओं में भाग खडे़ हुए।
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