महाभारत आदि पर्व अध्याय 230 श्लोक 1-18

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त्रिंशदधिकद्विशततम (230) अध्‍याय: आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

जरिता और उसके बच्चों का संवाद

जरिता ने कहा - बच्चो ! चूहा इस बिल से निकला था, उस समय उसे बाज उठा ले गया; उस छोटे से चूहे को वह अपने दोनों पंजों से पकड़कर उड़ गया। अतः अब इस बिल में तुम्हारे लिये भय नहीं है।

शांर्गक बोले - हम किसी तरह यह नहीं समझ सकते की बाज चूहे को उठा ले गया। उस बिल में दूसरे चूहे भी तो हो सकते हैं; हमारे लिये तो उनसे भी भय ही है। आग यहाँ तक आयेगी, इसमें संदेह है; क्योंकि वायु के वेग से अग्नि का दूसरी ओर पलट जाना भी देखा गया है। परंतु बिल में तो उसके भीतर रहने वाले जीवों से हमारी मृत्यु होने में कोई संशय नहीं है। माँ ! सशयरहित मृत्यु से संशययुक्त मृत्यु अच्छी है (क्योंकि उसमें बच जाने की भी आशा होती है); अतः तुम आकाश में उड़ जाओ। तुम्हें फिर (धर्मानूकुल रीति से) सुन्दर पुत्रों की प्राप्ति हो जायेगी। जरिता ने कहा - बच्चों ! जब पक्षियों में श्रेष्ठ महाबली बाज बिल से चूहे को लेकर वेगपूर्वक उड़ा जा रहा था, उस समय महान् वेग से उड़ने वाले उस बाज के पीछे मैं भी बड़ी तीव्र गति से गयी और बिल से चूहे को ले जाने के कारण उसे आशीर्वाद देती हुई बोली -। ‘श्येनराज ! तुम मेरे शत्रु को लेकर उडे़ जा रहे हो, इसलिये स्वर्ग में जाने पर तुम्हारा शरीर सोने का हो जाय और तुम्हारे कोई शत्रु न रह जाय’। जब उस पक्षिप्रवर बाज ने चूहे को खा लिया, तब मैं उसकी आज्ञा लेकर पुनः घर लौट आयी। अतः बच्चों ! तुम लोग विश्वासपूर्वक बिल में घुसो । वहाँ तुम्हारे लिये भय नहीं है। महान् बाज ने मेरी आँखों के सामने ही चूहे का अपहरण किया था।

शांर्गक बोले - माँ ! बाज ने चूहे को पकड़ लिया, इसको हम नहीं जानते और जाने बिना हम इस बिल में कभी प्रवेश नहीं कर सकते। जरिता ने कहा - बेटो ! मैं जानती हूँ, बाज ने अवश्य चूहे को पकड़ लिया। तुम लोग मेरी बात मानो। इस बिल में तुम्हें कोई भय नहीं है।

शांर्गक ओले - माँ ! तुम झूठे बहाने बनाकर हमें भय से छुडाने की चेष्टा न करो। संदिग्ध कार्यों में प्रवृत्त होना बुद्धिमानी का काम नहीं है।। हमने तुम्हारा कोई उपकार नहीं किया है और हम पहले कौन थे, इस बात को भी तुम नहीं जानती। फिर तुम क्यों कष्ट सहकर हमारी रक्षा करना चाहती हो ? तुम हमारी कौन हो और हम तुम्हारे कौन हैं ? माँ ! अभी तुम्हारी तरूण अवस्था है, तुम दर्शनीय सुन्दरी हो और पति के अन्वेषण में समर्थ भी हो। अतः पति का ही अनुसरण करो। तुम्हें फिर सुन्दर पुत्र मिल जायँगे। हम आशा में जलकर उत्तम लोक प्राप्त करेंगे और यदि अग्नि ने हमें नहीं जलाया तो तुम फिर हमारे पास चली आना।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! बच्चों के ऐसा कहने पर शांर्गी उन्हें खाण्डववन में छोड़कर तुरंत ऐसे स्थान में चली गयी, जहाँ आग से कुशलतापूर्वक बिना किसी कष्ट के बच जाने की सम्भावना थी ।।१६।। तदनन्तर तीखी लपटों वाले अग्निदेव तुरंत वहाँ आ पहुँचे, जहाँ मन्दपाल के पुत्र शांर्गक पक्षी मौजूद थे। तब उस जलती हुई आग को देखकर वे पक्षी आपस में वार्तापाल करने लगे। उनमें से जरितारि ने अग्निदेव को यह बात सुनायी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत मयदर्शनपर्व में शांर्गकोपाख्यान विषयक दो सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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