महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 178 श्लोक 24-45

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अष्‍टसप्तत्यधिकशततम (178) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यानपर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: अष्‍टसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 24-45 का हिन्दी अनुवाद

भीष्‍मजी कहते हैं- तदनन्तर तीसरे दिन (हस्तिनापुर के बाहर) एक स्थान पर ठहरकर महान् व्रतधारी परशुरामजी ने मुझे संदेश दिया- ‘राजन्! मैं यहां आया हूं। तुम मेरा प्रिय कार्य करो’ । तेज के भण्‍डार और महाबली भगवान् परशुराम को अपने राज्य की सीमा पर आया हुआ सुनकर मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ वेगपूर्वक उनके पास गया । राजेन्द्र! उस समय एक गौकों आगे करके ब्राह्मणों से घिरा हुआ मैं देवताओं के समान तेजस्वी ॠत्विजों तथा पुरोहितों के साथ उनकी सेवा में उपस्थित हुआ । मुझे अपने समीप आया हुआ देख प्रतापी परशुरामजी ने मेरी दी हुई पूजा स्वीकार की और इस प्रकार कहा । परशुरामजी बोले- भीष्‍म! तुमने किस विचार से उन दिनों स्वयं पत्नी की कामना से रहित होते हुए भी काशिराज की इस कन्या का अपहरण किया, अपने घर ले आये और पुन: इसे निकाल बाहर किया । तुमने इस यशस्विनी राजकुमारी को धर्म से भ्रष्‍ट कर दिया हैं। तुम्हारे द्वारा इसका स्पर्श कर लिया गया है, ऐसी दशा में इसे दूसरा कौन ग्रहण कर सकता है? । भारत! तुम इसे हरकर लाये थे। इसी कारण से शाल्वराज ने इसके साथ विवाह करने से इन्कार कर दिया है; अत: अब तुम मेरी आज्ञा से इसे ग्रहण कर लो । पुरूषसिंह! तुम्हें ऐसा करना चाहिये, जिससे इस राजकुमारी को स्वधर्मपालन अवसर प्राप्त हो। अनघ! तुम्हें राजाओं का इस प्रकार अपमान करना उचित नहीं हैं । तब मैंने परशुरामजी को उदास देखकर इस प्रकार कहा- ‘ब्रह्मन्! अब मैं इसका विवाह अपने भाई के साथ किसी प्रकार नहीं कर सकता । ‘भृगुनन्दन! इसने पहले मुझसे ही आकर कहा कि मैं शाल्व की हूं, तब मैंने इसे जाने की आज्ञा दे दी और यह शाल्वराज के नगर को चली गयी । ‘मैं भय से, दया से, धन के लोभ से तथा और किसी कामना से भी क्षत्रियधर्म का त्याग नहीं कर सकता, यह मेरा स्वीकार किया हुआ व्रत है’ । तब यह सुनकर परशुरामजी के नेत्रों में क्रोध का भाव व्याप्त हो गया और वे मुझसे इस प्रकार बोले- ‘नरश्रेष्‍ठ! यदि तुम मेरी यह बात नहीं मानोगे तो आज मैं मन्त्रियों सहित तुम्हें मार डालूंगा।’ इस बात को उन्होंने बार-बार दुहराया । शत्रुदमन दुर्योधन! परशुरामजी ने क्रोध भरे नेत्रों से देखते हुए बडे़ रोषावेश में आकर यह बात कही थी, तथापि मैं प्रिय वचनों द्वारा उन भृगुश्रेष्‍ठ महात्मा से बार-बार शान्त रहने के लिये प्रार्थना करता रहा; पर वे किसी प्रकार शान्त न हो सके । तब मैंने उन ब्राह्मणशिरोमणि के चरणों में मस्त‍क झुकाकर पुन: प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा- ‘भगवन्! क्या कारण है कि आप मेरे साथ युद्ध करना चाहते हैं? बाल्यावस्था में आपने ही मुझे चार प्रकार के धनुर्वेद की शिक्षा दी है। महाबाहु भार्गव! मैं तो आपका शिष्‍य हूं’ । तब परशुरमजी ने क्रोध से लाल आंखें करके मुझसे कहा- ‘महामते भीष्‍म! तुम मुझे अपना गुरू तो समझते हो; परंतु मेरा प्रिय करने के लिये काशिराज की इस कन्या को ग्रहण नहीं करते हो; किंतु कुरूनन्दन! ऐसा किये बिना तुम्हें शान्ति नहीं मिल सकती । ‘महाबाहो! इसे ग्रहण कर लो और इस प्रकार अपने कुल की रक्षा करो। तुम्हारे द्वारा अपनी मर्यादा से गिर जाने के कारण इसे पति की प्राप्ति नहीं हो रही है’ । ऐसी बातें करते हुए शत्रुनगरविजयी परशुरामजी से मैंने स्पष्‍ट कह दिया- ‘ब्रह्मर्षे! अब फिर ऐसी बात नहीं हो सकती। इस विषय में आपके परिश्रम से क्या होगा? । ‘जमदग्निनन्दन! भगवन्! आप मेरे प्राचीन गुरू हैं, यह सोचकर ही मैं आपको प्रसन्न करने की चेष्‍टा कर रहा हूं। इस अम्बा को तो मैने पहले ही त्याग दिया था ।‘दूसरे के प्रति अनुराग रखने वाली नारी सर्पिणी के समान भयंकर होती है। कौन ऐसा पुरूष होगा, जो जान-बूझकर उसे कभी भी अपने घर में स्थान देगा; क्योंकि स्त्रियों का (पर पुरूष में अनुरागरूप) दोष महान् अनर्थ का कारण होता हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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