महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 178 श्लोक 68-94

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अष्‍टसप्तत्यधिकशततम (178) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यानपर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: अष्‍टसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 68-94 का हिन्दी अनुवाद

‘राजन्! तुम दीन हो। आज तुम्हें मेरे हाथ से मारा गया देख सिद्ध-चारणसेविता गङ्गा देवी रूदन करें ।‘यद्यपि वे महाभागा भगीरथपुत्री पाप‍हीना गङ्गा यह दु:ख देखने के योग्य नहीं है, तथापि जिन्होंने तुम-जैसे युद्धकामी, आतुर एवं मुर्ख पुत्र को जन्म दिया है, उन्हें यह कष्‍ट भोगना ही पडे़गा । ‘युद्ध की इच्छा रखने वाले मदोन्मत्त भीष्‍म! आओ, मेरे साथ चलो। भरतश्रेष्‍ठ कुरूनन्दन! रथ आदि सारी सामग्री साथ ले लो’ ।शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले परशुरामजी को इस प्रकार कहते देख मैंने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और ‘एवमस्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की । ऐसा कहकर परशुरामजी युद्ध की इच्छा से कुरूक्षेत्र में गये और मैंने नगर में प्रवेश करके सत्यवती से यह सारा समाचार निवेदन किया । महातेजस्वी नरेश! उस समय स्वस्तिवाचन कराकर माता सत्यवती ने मेरा अभिनन्दन किया और मैं ब्राह्मणों से पुण्‍याहवाचन करा उनसे कल्याणकारी आशीर्वाद ले सुन्दर रजतमय रथ पर आरूढ़ हुआ। उस रथ में श्‍वेत रंग के घोडे़ जुते हुए थे। उसमें सब प्रकार की आवश्‍यक सामग्री सुन्दर ढंग से रक्खी गयी थी। उसकी बैठक बहुत सुन्दर थी। रथ के ऊपर व्याघ्रचर्म का आवरण लगाया गया था। वह रथ बडे़-बडे़ शस्त्रों तथा समस्त उपकरणों से सम्पन्न था। युद्ध में जिसका कार्य अनेक बार देख लिया गया था, ऐसे सुशिक्षित, कुलीन, वीर तथा अश्र्वशास्त्र के पण्डित सारथि द्वारा उस रथ का संचालन और नियन्त्रण होता था । भरतश्रेष्‍ठ! मैंने अपने शरीर पर श्‍वेतवर्ण का कवच धारण करके श्‍वेत धनुष हाथ में लेकर यात्रा की ।नरेश्‍वर! उस समय मेरे मस्तक पर श्‍वेत छत्र तना हुआ था और मेरे दोनों ओर सफेद रंग के चंवर डुलाये जाते थे। मेरे वस्त्र, मेरी पगड़ी और मेरे समस्त आभूषण श्‍वेत वर्ण के ही थे । विजयसूचक आशीर्वादों के साथ मेरी स्तुति की जा रही थी। भरतभूषण! उस अवश्‍य में मैं हस्तिनापुर से निकलकर कुरूक्षेत्र के समराङ्गण में गया । राजन्! मेरे घोडे़ मन और वायु के समान वेगशाली थे। सारथि के हांकने पर उन्होंने बात-की-बात में मुझे उस महान् युद्ध के स्थान पर पहुंचा दिया । राजन्! मैं तथा प्रतापी परशुरामजी दोनों कुरूक्षेत्र में पहुंचकर युद्ध के लिये सहसा एक-दूसरे को पराक्रम दिखाने के लिये उद्यत हो गये। तदनन्तर मैं अत्यन्त तपस्वी परशुरामजी की दृष्टि के सामने खड़ा हुआ और अपने श्रेष्‍ठ शङ्ख को हाथ में लेकर उसे जोर-जोर से बजाने लगा ।राजन्! उस समय वहां बहुत-से ब्राह्मण, वनवासी तपस्वी तथा इन्द्रसहित देवगण उस दिव्य युद्ध को देखने लगे । तदनन्तर वहां इधर-उधर से दिव्य मालाएं प्रकट होने लगी और दिव्य वाद्य बज उठे। साथ ही सब ओर मेघों की घटाएं छा गयीं । तदनन्तरपरशुरामजी के साथ आये हुए वे सब तपस्वी उस संग्रामभूमि को सब ओर से घेरकर दर्शक बन गये । राजन्! उस समय समस्त प्राणियों का हित चाहने वाली मेरी माता गङ्गादेवी स्वरूपत: प्रकट होकर बोली- ‘बेटा! यह तू क्या करना चाहता है? । ‘कुरूक्षेत्र! मैं स्वयं जाकर जमदग्निनन्दनपरशुरामजी से बारंबार याचना करूंगी कि आप अपने शिष्‍य भीष्‍म के साथ युद्ध न कीजिये ।‘बेटा! तू ऐसा आग्रह न कर। राजन्! विप्रवर जमदग्निनन्दन परशुराम के साथ समरभूमि में युद्ध करने का हठ अच्छा नहीं हैं।’ ऐसा कहकर वे डांट बताने लगीं । अन्त में वे फिर बोलीं- ‘बेटा! क्षत्रियहन्ता परशुराम महादेवजी के समान पराक्रमी हैं। क्या तू उन्हें नहीं जानता, जो उनके साथ युद्ध करना चाहता है?’ । तब मैंने हाथ जोड़कर गङ्गादेवी को प्रणाम किया और स्वयंवर में जैसी घटना घटित हुई थी, वह सब वृत्तान्त उनसे आद्योपान्त कह सुनाया ।राजेन्द्र! मैंने परशुरामजी से पहले जो-जो बातें कही थीं तथा काशिराज की कन्या की जो पुरानी करतूतें थीं, उन सबको बता दिया ।तत्पश्‍चात् मेरी जन्मदायिनी माता गङ्गा ने भृगुनन्दन परशुरामजी के पास जाकर मेरे लिये उनसे क्षमा मांगी । साथ ही यह भी कहा कि भीष्‍म आपका शिष्‍य है; अत: उसके साथ आप युद्ध न कीजिये। तब याचना करने वाली मेरी माता से परशुरामजी ने कहा- ‘तुम पहले भीष्‍म को ही युद्ध से निवृत्त करो। वह मेरे इच्छानुसार कार्य नहीं कर रहा है; इसीलिये मैंने उस पर चढा़ई की है’ । वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तब गङ्गादेवी पुत्रस्नेहवश पुन: भीष्‍म के पास आयीं। उस समय भीष्‍म के नेत्रों में क्रोध व्याप्त हो रहा था; अत: उन्होंने भी माता का कहना नहीं माना । इतने में ही भृगुकुलतिलक ब्राह्मणशिरोमणि महातपस्वी धर्मात्मा परशुरामजी दिखायी दिये। उन्होंने सामने आकर युद्ध के लिये भीष्‍म को ललकारा ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में परशुराम और भीष्‍म का कुरूक्षेत्र में युद्ध के लिये अवतरणविषयक एक सौ अठहत्तरवां अध्‍याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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