महाभारत सभा पर्व अध्याय 14 श्लोक 36-52

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चतुर्दश (14) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: त्रयोदश अध्याय: श्लोक 36-52 का हिन्दी अनुवाद

‘यदि हम लोग शत्रुओं का अन्त करने वाले बड़े-बड़े अस्त्रों द्वारा निरन्तर आघात करते रहें, तो भी तीन सौ वर्षों में भी उस की सेना का नाश नहीं कर सकते। ‘क्योंकि बलवानों में श्रेष्ठ हंस और डिम्भक उस के सहायक हैं, जो बल में देवताओं के समान हैं । उन दोनों को यह वरदान प्राप्त है कि वे किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारे जा सकते’। भैया युधिष्ठिर ! मेरा तो ऐसा विश्वास है कि एक साथ रहने वाले वे दोनों वीर हंस और डिम्भक तथा पराक्रमी जरासंध - ये तीनों मिलकर तीनों लोकों का सामना करने के लिये पर्याप्त थे। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ नरेश ! यह केवल मेरा मत नहीं है, दूसरे भी जितने भूमिपाल हैं, उन सबका यही विचार रहा है। जरासंध के साथ जब सत्रहवीं बार युद्ध हो रहा था, उसमें हंस नाम से प्रसिद्ध कोई दूसरा राजा भी लड़ने आया था, वह उस युद्ध में बलराम जी के हाथ से मारा गया। भारत ! यह देख किसी सैनिक ने चिल्लाकर कहा- ‘हंस मारा गया ।’ राजन् ! उसकी वह बात कान में पड़ते ही डिम्भक अपने भाई को मरा हुआ जान यमुना जी में कूद पड़ा। मैं हंस के बिना इस संसार में जीवित नहीं रह सकता ।’ ऐसा निश्चय करके डिम्भक ने अपनी जान दे दी।
डिम्भक की इस प्रकार मृत्यु हुई सुनकर शत्रु नगरी को जीतने वाला हंस भी भाई के शोक से यमुना में ही कूद पड़ा और उसी में डूबकर मर गया। भरत श्रेष्ठ ! उन दोनों की मृत्यु हुई सुनकर राजा जरासंध हताश हो गया और उत्साह शून्य हृदय से अपनी राजधानी को लौट गया। शत्रुसूदन ! उस के इस प्रकार लौट जानेपर हम सब लोग पुनः मथुरा में आनन्दपूर्वक रहने लगे। शत्रुदमन राजेन्द्र ! फिर जब पति के शोक से पीड़ित हुई कंस की कमललोचना भार्या अपने पिता मगध नरेश जरासंध के पास जाकर उसे बार-बार उकसाने लगी कि मेरे पति के घातक को मार डालो,। तब हम लोग भी पहले की की हुई गुप्त मन्त्रणा को स्मरण करके उदास हो गये । महाराज ! फिर तो हम मथुरा भाग खड़े हुए। राजन् ! उस समय हम ने यही निश्चय किया कि ‘यहाँ की विशाल सम्पत्ति को पृथक-पृथक बाँटकर थोड़ी-थोड़ी करके पुत्र एवं भाई-बन्धुओं के साथ शत्रु के भय से भाग चलें ।’ ऐसा विचार करके हम सब ने पश्चिम दिशा की शरण ली। और राजन् ! रैवतक पर्वत से सुशोभित रमणीय कुशस्थली पुरी में जाकर हम लोग निवास करने लगे। हमने कुशस्थली दुर्ग की ऐसी मरस्मत करायी कि देवताओं के लिये भी उस में प्रवेश करना कठिन हो गया । अब तो उस दुर्ग में रहकर स्त्रियाँ भी युद्ध कर सकती हैं, फिर वृष्णि कुल के महारथियों की तो बात ही क्या है ? शत्रुसूदन ! हम लोग द्वारका पुरी में सब ओर से निर्भय होकर रहते हैं । कुरूश्रेष्ठ ! गिरिराज रैवतक की दुर्गमता का विचार करके अपने को जरासंध के संकट से पार हुआ मानकर हम सभी मधुवंशियों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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