महाभारत सभा पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-15

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चतुर्दश (14) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ के लिये सम्मति

श्रीकृष्ण ने कहा- महाराज ! आप में सभी सद्गुण विद्यमान हैं, अतः आप राजसूय यज्ञ करने के लिये योग्य हैं । भारत ! आप सब कुछ जानते हैं, तो भी आपके पूछने पर मैं इस विषय में कुछ निवेदन करता हूँ।। जमदग्निनन्दन परशुराम ने पूर्वकाल में जब क्षत्रियों का संहार किया था, उस समय लुक-छिपकर जो क्षत्रिय शेष रह गये, वे पूर्ववर्ती क्षत्रियों की अपेक्षा निम्न कोटि के हैं । इस प्रकार इस समय संसार में नाममात्र के क्षत्रिय रह गये हैं। पृथ्वीपते ! इन क्षत्रियों ने पूर्वजों के कथनानुसार सामूहिक रूप से यह नियम बना लिया है कि हम में से जो समस्त क्षत्रियों को जीत लेगा, वही सम्राट् होगा । भरत- श्रेष्ठ ! यह बात आप को भी मालूम ही होगी। इस समय श्रेणिबद्ध (सब-के-सब ) राजा तथा भूमण्डल के दूसरे क्षत्रिय भी अपने को सम्राट् पुरूरवा तथा इक्ष्वाकु की संतान कहते हैं। भरतश्रेष्ठ राजन् ! पुरूरवा तथा इक्ष्वाकु के वंश में जो नरेश आज कल हैं, उन के एक सौ कुल विद्यमान हैं; यह बात आप अच्छी तरह जान लें। महाराज ! आज कल राजा ययाति के कुल में गुण की दृष्टि से भोजवंशियों का ही अधिक विस्तार हुआ है । भोजवंशी बढ़कर चारों दिशाओं में फैल गये हैं तथा आज के सभी क्षत्रिय उन्हीं की धन-सम्पत्ति का आश्रय ले रहें हैं। राजन् ! अभी-अभी भूपाल जरासंध उन समस्त क्षत्रिय-कुलों की राजलक्ष्मी को लाँघकर राजाओं द्वारा सम्राट् के पद पर अभिषिक्त हुआ है और वह अपने बल-पराक्रम से सब पर आक्रमण करके समस्त राजाओं का सिरमौर हो रहा है। जरासंध मध्यभूमि का उपभोग करते हुए समस्त राजाओं में परस्पर फूट डालने की नीती को पसंद करता है । इस समय वही सबसे प्रबल एवं उत्कृष्ट राजा है । यह सारा जगत् एकमात्र उसी के वश में है। महाराज ! वह अपनी राजनीतिक युक्तियों से इस समय सम्राट् बन बैठा है । राजन् ! कहते हैं, प्रतापी राजा शिशुपाल सब प्रकार से जरासंध का आश्रय लेकर ही उस का प्रधान सेनापति हो गया है। युधिष्ठिर ! माया युद्ध करने वाला महाबली करूषराज दन्तवक्र भी जरासंध के सामने शिष्‍य की भाँति हाथ जोड़े खड़ा रहता है। विशालकाल अन्य दो महापराक्रमी योद्धा सुप्रसिद्ध हंस और डिम्भक भी महाबली जरासंध की शरण ले चुके थे। करूष देश का राजा दन्तवक्र, करभ और मेघवाहन- ये सभी सिर पर दिव्य मणिमय, मुकुट धारण करते हुए भी जरासंध को अपने मस्तक की अद्भुत मणि मानते हैं (अर्थात् उस के चरणों में सिर झुकाते रहते हैं)। महाराज ! जो मुर और नरक नामक देश का शासन करते हैं, जिन की सेना अनन्त है, जो वरूण के समान पश्चिम दिशा के अधिपति कहे जाते हैं, जिन की वृद्धावस्था हो चली है तथा जो आप के पिता के मित्र रहे हैं, वे यवनाधिपति राजा भगदत्त भी वाणी तथा क्रिया द्वारा भी जरासंध के सामने विशेष रूप से नतमस्तक रहते हैं; फिर भी वे मन-ही-मन तुम्हारे स्नेहपाश में बँधे हैं और जैसे पिता अपने पुत्र पर प्रेम रखता है, वैसे ही उनका तुम्हारे ऊपर वात्सल्य भाव बना हुआ है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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