महाभारत सभा पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-15

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पञ्चदश (15) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: पञ्चदश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

जरासंध के विषक में राजा युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्ण की बातचीत

युधिष्ठिर बोले-श्रीकृष्ण ! आप परम बुद्धिमान् हैं, आपने जैसी बात कही है, वैसी दूसरा कोई नहीं कह सकता। इस पृथ्वी पर आप के सिवा समस्त संशयों को मिटाने वाला और कोई नहीं है। आज कल तो घर-घर में राजा हैं और सभी अपना-अपना प्रिय कार्य करते हैं, परंतु वे सम्राट् पद को नहीं प्राप्त कर सके; क्योंकि सम्राट् की पदवी बड़ी कठिनाई से मिलती है। जो दूसरों के प्रभाव को जानता है, वह अपनी प्रशंसा कैसे कर सकता है ? दूसरे के साथ मुकाबला होने पर भी जो प्रशंसनीय बना रह जाय, उसी की सर्वत्र पूजा होती है। वृष्णि कुलभूषण ! यह पृथ्वी बहुत विशाल है, अनेक प्रकार के रत्नों से भरी हुई है, मनुष्य दूर जाकर (सत्पुरूषों का संग करके) यह समझ पाता है कि अपना कल्याण कैसे होगा। मैं तो मन और इन्द्रियों के संयम को ही सबसे उत्तम मानता हूँ , उसी से मेरा भला होगा । राजसूय यज्ञ का आरम्भ करने पर भी उस के फलस्वरूप ब्रह्मलोक की प्राप्ति अपने लिये असम्भव है- मेरी तो यही धारण है। जनार्दन ! ये उत्तम कुल में उत्पन्न मनस्वी सभासद् ऐसा जानते हैं कि इन में कभी कोई श्रेष्ठ (सर्वविजयी) भी हो सकता है ।।६।। पापरहित महाभाग ! हम भी जरासंध के भय से तथा उस की दुष्टता से सदा शंकित रहते हैं । किसी से परास्त न होने वाले प्रभो ! मैं तो आपके बाहुबल का भरोसा रखता हूँ । जब आप ही जरासंध से शंकित हैं, तब तो मैं अपने को उस के सामने कदापि बलवान् नहीं मान सकता। महाबाहु माधव ! आपसे, भीमसेन से अथवा अर्जुन से वह मारा जा सकता है या नहीं ? वार्ष्‍णेय ! (आप की शक्ति अनन्त है,) यह जानते हुए भी मैं बार-बार इसी बात पर विचार करता रहता हूँ ।।९।। केशव ! मेरे लिये सभी कार्यों में आप ही प्रमाण हैं । युधिष्ठिर का यह वचन सुनकर बोलने में चतुर भीमसेन ने यह वचन कहा।

भीमसेन बोले - महाराज ! जो राजा उद्योग नहीं करता तथा जो दुर्बल होकर भी उचित उपाय अथवा युक्ति से काम न लेकर किसी बलवान् से भिड़ जाता है, वे दोनों दीमकों के बनाये हुए मिट्टी के ढेर के समान नष्ट हो जाते हैं। परंतु जो आलस्य त्यागकर उत्तम युक्ति एवं नीति से काम लेता है, दुर्बल होने पर भी बलवान् शत्रु को जीत लेता है और अपने लिये हितकर एवं अभीष्ट अर्थ प्राप्त करता है।। श्रीकृष्ण में नीती है, मुझ में बल है और अर्जुन में विजयी की शक्ति है । हम तीनों मिलकर मगधराज जरासंध के वध का कार्य पूर कर लेंगे; ठीक उसी तरह, जैसे तीनों अग्नियाँ यज्ञ की सिद्धि कर देती हैं। गोविन्द ! आपके बुद्धिबल का आश्रय लेकर धर्मराज युधिष्ठिर सब कुछ पा सकते हैं । जिन की सदा रक्षा करने वाले आप हैं, उनकी-हम पाण्डवों की विजय निश्चित है ।। श्रीकृष्ण ने कहा - राजन् ! अज्ञानी मनुष्य बड़े-बड़े कार्यों का आरम्भ तो कर देता है, परंतु उनके परिणाम की ओर नहीं देखता । अतः केवल अपने स्वार्थ साधन में लगे हुए विवके शून्य शत्रु के व्यवहार को वीर पुरूष नहीं सह सकते । युवनाश्व के पुत्र मान्धाता ने जीतने योग्य शत्रुओं को जीतकर सम्राट् का पद प्राप्त किया था । भगीरथ प्रजा का पालन करने से, कार्तवीर्य (सहस्त्रबाहु अर्जुन) तपोबल से तथा राजा भरत स्वाभाविक बल से सम्राट् हुए थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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