महाभारत सभा पर्व अध्याय 79 भाग-4

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:४९, १८ सितम्बर २०१५ का अवतरण ('==एकोनाशीतितम (79) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)== <div style="text-...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकोनाशीतितम (79) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: भाग-3 का हिन्दी अनुवाद

मानो बड़ा भारी अकाल पड़ गया हो, इस प्रकार ये सारे घर ढह जायँ । इनमें टूटे बर्तन बिखरे पड़े हो और हम सदा के लिये इन्‍हें छोड़ दें—ऐसी दशा में इन घरों पर कपटी सुबलपुत्र शकुनि अधिकार कर ले। अब जहाँ पाण्‍डव जा रहे हैं, वह वन ही नगर हो जाय और हमारे छोड़ देने पर यह नगर ही वन के रूप में परिणत हो जाय। वन में हम लोगों के भय से साँप अपने बिल छोड़कर भाग जायँ मृग और पक्षी जंगलों को छोड़ दें तथा हाथी और सिंह भी वहाँ से दूर चले जायँ। हम लोग तृण (साग-पात), अन्‍न और फल का उपयोग करने वाले हैं । जंगल के हिंसक पशु और पक्षी हमारे रहने के स्‍थानों को छोड़कर चल जायँ । वे ऐसे स्‍थान का आश्रय लें, जहाँ हम न जायँ और वे उन स्‍थानों को छोड़ दें, जिनका हम सेवन करें । हम लोग वन में कुन्‍ती पुत्रों के साथ बडे़ सुख से रहेंगे ।

वैशम्‍पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! इस प्रकार भिन्‍न-भिन्‍न मनुष्‍यों की कही हुई भाँति-भाँति की बातें युधिष्ठिर ने सुनीं। सुनकर भी उनके मन में कोई विकार नहीं आया। तदनन्‍तर चारों ओर महलों में रहने वाली ब्राह्माण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्रों की स्त्रियाँ अपने-अपने भवनों की खिड़कियों के पर्दे हटाकर दीन पाण्‍डवों को देखने लगीं । सब पाण्‍डवों ने मृगचर्म मय वस्‍त्र धारण कर रक्‍खा था । उनके साथ द्रौपदी भी पैदल ही चली जा रही थी। उसे उन स्त्रियों ने पहले कभी नहीं देखा था । उसके शरीर पर एक ही वस्‍त्र था, कैश खुले हुए थे, वह रजस्‍वला थी और रोती चली जा रही थी । उसे देखकर उस समय सब स्त्रियों का मुख उदास हो गया । वे क्षोम एवं मोह के कारण नाना प्रकार सें विलाप करती हुई दु:ख शोक से पीडित हो गयीं और ‘हाय हाय ! इन धृतराष्‍ट्र पुत्रों को बार-बार धिक्‍कार हैं, धिक्‍कार है’ ऐसा कहकर नेत्रों से आँसू बहाने लगीं। उसके वस्‍त्र खींचे जाने (एवं वन में जाने) आदि का सारा वृत्तान्‍त सुनकर कौरवों की अत्‍यन्‍त निन्‍दा करती हुई फूट-फूट- कर रोने लगीं और अपने मुखार विन्‍द को हथेली पर रखकर बहुत देर तक गहरी चिन्‍तामें डूबी रहीं। उस समय अपने पुत्रों के अन्‍याय का चिन्‍तन करके राजा धृतराष्‍ट्र का भी हृदय उद्विग्र हो उठा । उन्‍हें तनिक भी शान्ति नहीं मिली। चिन्‍ता में पड़े-पडे़ उनकी एकाग्रता नष्‍ट हो गयी । उनका चित्त शोक से व्‍याकूल हो रहा था । उन्‍होंने विदुर के पास संदेश भेजा कि तुम शीघ्र मेरे पास चले आओ। तब विदुर राजा धृतराष्‍ट्र के महल में गये । उस समय महाराज धृतराष्‍ट्र ने अत्‍यन्‍त उद्विग्र होकर उनसे पूछा।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।