महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 123 श्लोक 19-37

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त्रयोविंशत्यधिकशतकम (123) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: त्रयोविंशत्यधिकशतकम अध्याय: श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद

जैसे बड़े - बड़े सर्प गरुड़ के भय से बिलों में घुस जाते हैं, उसी प्रकार आपके वे सभी पराजित सैनिक द्रोणाचार्य के रथ के पास इकट्ठे हो गये। विषधर सर्प के समान भयंकर बाणों द्वारा पाँच सौ योद्धाओं का संहार करके वीर सात्यकि धीरे-धीरे धनंजय के रथ की ओर बढ़ने लगे।उस समय आपके पुत्र दुःशासन ने हवाँ जाते हुए नरश्रेष्ठ सात्यकि को झुकी हुई गाँठ वाले नौ ब्राणों द्वारा शीघ्र ही बींध डाला। तब महाधनुर्धर सात्यकि ने भी सोने के पंख तथा गीध की पाँख वाले पाँच तीखे और सीधे जाने वाले बाणों द्वारा दुःशासन को बेधकर बदला चुकाया। भरतवंशी महाराज ! इसके बाद दुःशासन ने हँसते हुए से ही वहाँ तीन बाणों द्वारा सात्यकि को घायल करके पुनः पाँच बाणों से बींध डाला। तब शिनि पौत्र सात्यकि पाँच बाणों से आपके पुत्र को रणक्षेत्र में घायल करके उसका धनुष काटकर मुसकराते हुए वहाँ से अर्जुन की ओर चल दिये। तदनन्तर दुःशासन ने वहाँ से जाते हुए वृष्णि वीर सात्यकि पर कुपित हो उन्हें मार डालने की इच्छा से सम्पूर्णतः लोहे की बनी हुई शक्ति चलायी। राजन् ! आपके पुत्र की उस भयंकर शक्ति को उस समय सात्यकि ने कंक पत्र युक्त तीखे बाणों द्वारा सौ टुकड़ों में खंडित कर दिया।
जनेश्वर ! तत्पश्चात् आपके पुत्र ने दूसरा धनुष लेकर सात्यकि को अपने बाणों द्वारा घायल करके सिंह के समान गर्जना की। इससे महाभाग सात्यकि ने समरांगण में कुपित होकर आपके पुत्र को मोहित करते हुए झुकी हुई गाँठ वाले अग्नि की लपटों के समान प्रज्वलित तीन बाणों द्वारा उसकी छाती में गहरी चोट पहुँचायी। फिर लोह के बने हुए तीखी धार वाले आठ बाणों से उसे पुनः घायल कर दिया। तब दुःशासन ने भी बीस बाण मारकर सात्यकि को क्षत - विक्षत कर दियो। महाराज ! इधर महाभाग सात्यकि ने भी झुकी हुई गाँठ वाले तीन बाणों द्वारा दुःशासन की छाती में चोट पहुँचायी। इसके बाद महारथी युयुधान ने अत्यन्त कुपित हो पैने बाणों से उसके चारों घोड़ों को मार डाला। फिर झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से सारथि को भी यमलोक पहुँचा दिया।
तदनन्तर महान् अस्त्रवेत्ता सात्यकि ने एक भल्ल से दुःशासन का धनुष, पाँच से उसके दस्ताने तथा दो भल्लों से उसकी ध्वजा एवं रथशक्ति के भी टुकड़े - टुकड़े कर दिये। इतना ही नहीं, उन्होंने तीखे बाणों द्वारा उसके दोनों पाश्र्वरक्षकों को भी मार डाला। धनुष कट जाने पर रथ, घोड़े और सारथि से हीन हुए दुःशासन को त्रिगर्त - सेनापति ने अपने रथ पर बिठाकर वहाँ से दूर हटा दिया। भारत ! उस समय महाबाहु सात्यकि ने लगभग दो घड़ी तक दुःशासन का पीछा किया; परंतु भीमसेन की बात याद आ जाने से उसका वध नहीं किया। भरतनन्दन ! भीमसेन ने सभा में सबके सामने ही युद्ध स्थल में आपके पुत्रों का वध करने की प्रतिज्ञा की थी। राजन् ! प्रभो ! इस प्रकार समरांगण में दुःशासन पर विजय पाकर सात्यकि तत्काल ही उसी मार्ग पर चल दिये, जिससे अर्जुन गये थे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में सात्यकि का प्रवेश और दुःशासन की पराजय विषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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