महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 123 श्लोक 1-18
त्रयोविंशत्यधिकशतकम (123) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
सात्यकि का घोर युद्ध और दुःशासन की पराजय
संजय कहते हैं - राजन् ! तदनन्तर दुःशासन ने वर्षा करने वाले मेघ के समान लाखों बाण बिखेरते हुए वहाँ शिनि पौत्र सात्यकि पर धावा कर दिया। वह पहले साठ फिर सोलह बाणों से बींधकर भी युद्ध में मैनाक पर्वक की भाँति अविचल भाव से खड़े हुए सात्यकि को कम्पित न कर सका शूरवीर दुःशासन ने नाना देशों से प्राप्त हुए विशाल रथ समूह के द्वारा तथा बाणों की वर्षा से भी सात्यकि को अत्यन्त आवृत कर लिया। भरतश्रेष्ठ ! उसने मेघ के समान अपनी गम्भीर गर्जना से दसों दिशाओं को निनादित करते हुए चारों ओर से बहुत से बाणों की वर्षा की। कुरुवंशी दुःशासन को रधक्षेत्र में आक्रमण करते देख महाबाहु सात्यकि ने उस पर धावा करके अपने बाणों द्वारा उसे आच्छादित कर दिया। वे दुःशासन आदि योद्धा सात्यकि के बाण - समूहों से आच्छादित होने पर समर भूमि में भयभीत हो उठे और आपकी सारी सेना के देखते-देखते भागने लगे। राजेन्द्र ! उनके भागने पर भी आपका पुत्र दुःशासन वहीं निर्भय खड़ा रहा। उसने सात्यकि को अपने बाणों से पीडि़त कर दिया। उसने चार बाणों से उसके घोड़ों को, तीन से सारथि को और सौ बाणों से स्वये सात्यकि को युद्धभूमि में घायल करके बड़े जोर से गर्जना की।
महाराज ! तब मधुवंशी सात्यकि ने समरांगण में कुपित होकर दुःशासन के रथ, सारथि और ध्वज को अपने बाणों द्वारा अदृश्य कर दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने शूरवीर दुःशासन को अपने बाणों से अत्यन्त आच्छादित कर दियो। जैसे मकड़ी अपने जाल से किसी जीव को लपेट देती है, उसी प्रकार शंकित भाव से पास आये हुए दुःशासन को शत्रु विजयी सात्यकि ने बड़ी उतावली के साथ अपने बाणों द्वारा आवृत कर लिया। इस प्रकार दुःशासन को सैंकड़ों बाणों से ढका हुआ देख राजा दुर्योधन ने त्रिगर्तों को युयुधान के रथ पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। वे त्रिगर्तों के तीन हजार रथी, जो युद्ध में कुशल थे, कठोर कर्म करने वाले युयुधान के समीप गये। उन्होंने युद्ध के लिये दृढ़ निश्चय करके परस्पर शपथ ग्रहण करने के अनन्तर विशाल रथ सेना के द्वारा उन्हें घेर लिया। तब सात्यकि ने युद्ध में बाण वर्षा करते हुए आक्रमण करने वाले पाँच सौ प्रमुख योद्धाओं को सेना के मुहाने पर मार गिराया। जैसे आँधी के वेग से टूटे हुए वृक्ष पर्वत से नीचे गिरते हैं, उसी प्रकार शिनि श्रेष्ठ सात्यकि के बाणों से मारे गये वे त्रिगर्त योद्धा तुरंत ही धराशायी हो गये।
महाराज ! प्रजापालक नरेश ! उस समय गिरे हुए गजराजों, अनेक टुकड़ों में कटी हुई ध्वजाओं तथा धरती पर पड़े हुए, सोने की कलंगियों से सुशोभित घोड़ों से, जो सात्यकि के बाणों से क्षत - विक्षत होकर खून से लथपथ हो रहे थे, आच्छादित हुई यह पृथ्वी वैसी ही शोभा पा रही थी, मानों वह लाल फूलों से भरे हुए पलाश के वृक्षों द्वारा ढक गयी हो। जैसे कीचड़ में फँसे हुए हाथियों को कोई रक्षक नहीं मिलता है, उसी प्रकार समरांगण में युयुधान की मार खाते हुए आपके सैनिक कोई रक्षक न पा सके।
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