महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 124 श्लोक 35-47

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चतुर्विंशत्यधिकशतकम (124) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: चतुर्विंशत्यधिकशतकम अध्याय: श्लोक 35-47 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन ने अपने धनुष को खींचकर मण्डलाकार बना दिया था। वह अपनी शिक्षा और अस्त्र - शस्त्र से इतनी शीघ्रता के साथ बाणों को धनुष पर रखता, चलाता तथा शत्रुओं का वध करता था कि कोई उसके इस कार्य को देख नहीं पाता था। शत्रुओं के संहार में लगे हुए दुर्योधन के सुवर्णमय पृृष्ठ वाले विशाल धनुष को सब लोग समरांगण में सदा मण्डलाकार हुआ ही देखते थे। कुरुनन्दन ! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने दो भल्ल मारकर युद्ध में विजय के लिये प्रयत्न करने वाले आपके पुत्र के धनुष को काट दिया। और उसे विधि पूर्वक चलाये हुए उत्तम दस बाणों द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। वे बाण तुरंत ही उसके कवच में जा लगे और उसे छेदकर धरती में समा गये। इससे कुन्ती कुमारों को बड़ी प्रसन्नता हुई। जैसे पूर्वकाल में वृत्रासुर का वध होने पर सम्पूर्ण देवताओं और महर्षियों ने इन्द्र को सब ओर से घेर लिया था, उसी प्रकार पाण्डव भी युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। तत्पश्चात् आपके प्रतापी पुत्र ने दूसरा धनुष लेकर ‘खड़ा रह, खड़ा रह’ ऐसा कहते हुए वहाँ पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। उस महासमर में आपके पुत्र को आते देख विजय की अभिलाषा रखने वाले पान्चाल सैनिक संघबद्ध हो उसका सामना करने के लिये आगे बढ़े। उस समय युद्ध में युधिष्ठिर को पकड़ने की इच्छा वाले द्रोणाचार्य ने उन सब योद्धाओं को उसी प्रकार रोक दिया, जैसे प्रचण्ड वायु द्वारा उड़ाये गये जलवर्षी मेघों को पर्वत रोक देता है।
राजन् ! महाबाहो ! फिर तो वहाँ युद्ध स्थल में पाण्डवों तथा आपके सैनिकों में महान् रोमान्चकारी संग्राम होने लगा। जो रुद्र की क्रीड़ा भूमि ( श्मशान के सदृश ) सम्पूर्ण देहधारियों के लिये संहार का स्थान बन गया। प्रभो ! तदनन्तर जिधर अर्जुन गये थे, उसी ओर बड़े जोर का कोलाहल होने लगा, जो सम्पूर्ण शब्दों के ऊपर उठकर सुनने वालों के रोंगटे खड़े किये देता था। महाबाहो ! उस महासमर में कौरवी सेना के भीतर आपके धनुर्धरों की तथा अर्जुन और सात्यकि की भीषण गर्जना सुनायी देती थी। पृथ्वीवते ! उस महायुद्ध में व्यूह के द्वार पर शत्रुओं के साथ जूझते हुए द्रोणाचार्य का भी सिंहनाद प्रकट हो रहा था। इस प्रकार अर्जुन, द्रोणाचार्य तथा महारथी सात्यकि के कुपित होने पर युद्ध भूमि में यह भयंकर विनाश का कार्य सम्पन्न हुआ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में सात्यकि का प्रवेश और दोनों सेनाओं का घमासान युद्ध विषयक एक सौ चैबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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