महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 130 श्लोक 1-16
त्रिंशदधिकशतकम (130) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
दुर्योधन का द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना, द्रोणाचार्य का उसे द्यूत का परिणाम दिखाकर युद्ध के लिये वापस भेजना और उसके साथ युधामन्यु तथा उत्तमौजा का युद्ध
संजय कहते हैं - महाराज ! इस प्रकार जब वह सेना विचलित होकर भाग चली, अर्जुन सिंधुराज के वध के लिये आगे बढ़ गये और उनके पीछे सात्यकि तथा भीमसेन भी वहाँ जा पहुँचे, तब आपका पुत्र दुर्योणन बड़ी उतावली के साथ एकमात्र रथ द्वारा बहुत से आवश्यक कार्यों के सम्बन्ध में सोचता विचारता हुआ द्रोणाचार्य के पास गया। आपके पुत्र का वह रथ मन और वायु के समान वेगशाली था। वह बड़ी तेजी के साथ तत्काल द्रोणाचार्य के पास जा पहुँचा। उस समय आपका पुत्र कुरुनन्दन दुर्योधन क्रोध से लाल आँखें करके घबराहट के स्वर में द्रोणाचार्य से इस प्रकार बोला-‘आचार्य ! अर्जुन, भीमसेन और अपराजित वीर सात्यकि - ये तीनों महारथी मेरी सम्पूर्ण एवं विशाल सेनाओं को पराजित करके सिंधुराज जयद्रथ के समीप पहुँच गये हैं। उन्हें कोई रोक नहीं सका है। ‘वहाँ भी वे सब - के - सब अपराजित होकर मेरी सेना पर प्रहार कर रहे हैं। मान लिया , महारथी अर्जुन रण भूमि में ( अधिक शक्तिशाली होने के कारण ) आपको लाँघ कर आगे बढ़ गये हैं; परंतु दूसरों को मान देने वाले गुरुदेव ! सात्यकि और भीमसेन ने किस तरह आपका लंघन किया ?
‘विपंवर ! सात्यकि, भीमसेन तथा अर्जुन के द्वारा आपकी पराजय समुद्र को सुखा देने के समान इस संसार में उे आश्चर्य भरी घटना है। लोग बड़े जोर से इस बात की चर्चा कर रहे हैं। ‘सारे योद्धा यह कह रहे हैं कि धनुर्वेद के पारंगत आचार्य द्रोण कैसे युद्ध में पराजित हो गये। आपका यह हारना लोगों के लिये अविश्वसनीय हो गया है। ‘वास्तव में मेरा भाग्य ही खोटा है। ये तीनों महारथी जहाँ आप जैसे पुरुषसिंह को लाँघकर आगे बढ़ गये हैं, उस युद्ध में मेरा विनाश ही अवश्यम्भावी है। ‘ऐसी परिस्थितियों में जो कर्तव्य है, उसके सम्बन्ध में आपकी क्या राय है, यह बताइये। मानद ! जो हो गया सो तो हो ही गया। अब जो शेष कार्य है, उसका विचार कीजिये। ‘ब्रह्मन् ! इस समय सिंधुराज की रक्षा के लिये तुरंत करने योग्य जो कार्य हमारे सामने प्राप्त है, उसे अच्छी तरह सोच विचारकर शीघ्र सम्पन्न कीजिये’।
द्रोणाचार्य ने कहा - तात ! सोचने विचारने को तो बहुत है, किंतु इस समय जो कर्तवय प्राप्त है, वह मुझसे सुनो। पाण्डव पक्ष के तीन महारथी हमारी सेना को लाँघकर आगे बढ़ रहे हैं। पीछे उनका जितना भय है, उतना ही आगे भी है। परंतु जहाँ अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं, वहीं मेरी समझ में अणिक भय की आशंका है। इस समय कौरव सेना आगे और पीछे से भी शत्रुओं के आक्रमण का शिकार हो रही है। इस परिथ्थिति में मैं सबसे आवश्यक कार्य यही मानता हूँ कि सिंधुराज जयद्रथ की रक्षा की जाय। तात ! जयद्रथ कुपित हुए अर्जुन से डरा हुआ है। अतः वह हमारे लिये सबसे रक्षणीय है। भयंकर वीर सात्यकि और भीमसेन भी जयद्रथ को ही लक्ष्य करके गये हैं।
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