महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 132 श्लोक 1-20

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द्वात्रिंशदधिकशतकम (132) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: द्वात्रिंशदधिकशतकम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

भीमसेन और कर्ण का घोर युद्ध

धृतराष्ट्र ने कहा - संजय ! भृगुवंश शिरोमणि धनुर्धर परशुरामजी साक्षात् भगवान् शंकर के शिष्य हैं तथा कर्ण उन्हीं का शिष्यत्व ग्रहण करके अस्त्र विद्या में उनके समान ही सुयोग्य हो गया था। अथवा शिष्योचित सद्गुणों से सम्पन्न परशुरामजी का वह शिष्य उनसे बढ़ - चढ़कर है, तो भी उसे कुन्ती कुमार भीमसेन ने खेल - खेल में ही पराजित कर दिया। संजय ! जिस पर मेरे पुत्रों को विजय की बड़ी आशा लगी हुई है, उसे भीमसेन से पराजित होकर युद्ध से विमुख हुआ देख दुर्योधन ने क्या कहा ? तात ! अपने पराक्रम से सुशोभित होने वाले महाबली भीमसेन ने किस प्रकार युद्ध किया ? अथवा कर्ण ने रण क्षेत्र में भीमसेन को अग्नि के समान तेज से प्रज्वलित होते देख उसके बाद क्या किया ? संजय कहते हैं - राजन् ! वायु के वेग से ऊपर उठते हुए समुद्र के समान कर्ण ने विधि पूर्वक सजाये हुए दूसरे रथ पर आरूढ़ होकर पुनः पाण्डु नन्दन भीम पर आक्रमण किया। प्रजानाथ ! उस समय अधिरथ पुत्र कर्ण कोे क्रोध में भरा हुआ देखकर आपके पुत्रों ने यही मान लिया कि भीमसेन अब अग्नि के मुख में दी हुई आहुति के समान नष्ट हो जायँगे। तदनन्तर धनुष की टंकार और हथेली का भयानक शब्द करते हुए राधा नन्दन कर्ण ने भीमसेन के रथ पर धावा बोल दिया।
राजन् ! शूरवीर कर्ण और महामनस्वी भीमसेन - इन दोनों वीरों में पुनः घोर संग्राम छिड़ गया। एक दूसरे के वध की इच्छा वाले वे दोनों महाबाहु योद्धा अत्यनत कुपित हो एक दूसरे को नेत्रों द्वारा दग्ध करते हुए परस्पर दृष्टिपात करने लगे। उन दोनों की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं थीं। दोनों ही फुकारते हुए सर्पों के समान लंबी साँस खाींच रहे थे। दोनों ही शत्रुदमन वीर उग्र हो परस्पर भिड़कर ऐ दूसरे को बाणों द्वारा क्षत - विक्षत करने लगे। वे दो व्याघ्रों के समान रोषावेश में भरकर दो बाघों के समान परस्पर शीघ्रता पूर्वक झपटते थे तथा अत्यन्त क्रोध में भरे हुए दो शरभों के समान परस्पर युद्ध करते थे। जूआ के समय; वनवास काल में तथा विराट नगर में जो दुःख प्रापत हुआ था, उनका स्मरण करके, आपके पुत्रों ने जो पाण्डवों के राज्यों तथा समुज्जवल रत्नों का अपहरण किया था, उसे याद करके, पुत्रों सहित अपने पाण्डवों को जो निरन्तर क्लेश प्रदान किये हैं, उन्हें ध्यान में लाकर, निरपराध कुनती देवी तथा दनके पुत्रों को जो आपने जला डालने की इच्छा की थी, सभी के भीतर आपके दुरात्मा पुत्रों ने जो द्रौपदी को महान् कष्ट पहुँचाया था, दुःशासन ने जो उसके केश पकड़े थे, भारत ! कर्ण ने जो उसके प्रति कठोर वचन सुनाये थे तथा कुरुनन्दन ! आपकी आँखें के सामने ही कौरवों ने जो द्रौपदी से यह कहा कि ‘कृष्णे ! तू दूसरा पति कर ले, तेरे ये पति अब नहीं रहे, कुनती के सभी पुत्र थोथे तिलों के समान निवीर्य होकर नरक ( दुःख ) में पड़ गये हैं।’
महाराज ! आपके पुत्र जरे द्रौपदी को दासी बनाकर उसका उपभोग करना चाहते थे तथा काले मृगचर्म धारण करके वन की ओर प्रस्थान करते समयपाण्डवों के प्रति सभा में आपके समीप ही कर्ध ने जो कटु वचन सुनाये थे और पाण्डवों को तिनकों के समान समझ कर जो आपका पुत्र दुर्योधन उछलता - कूदता था, स्वयं सुखमयी परिस्थितियों में रहते हुए भी जो उस अचेत मूर्ख ने सुकट में पड़े हुए पाण्डवों के प्रति क्रोध का भाव दिखाया था, इन सब बातों को तथा बचपन से ल्रकर अब तक आपकी बोर से प्राप्त हुए अपने दुःखों को याद करके शत्रुओं का दमन करने वाले शत्रुनाशक धर्मात्मा भीमसेन अपने जीवन से विरक्त हो उठे थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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