महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 2
द्वाविंशत्यधिकद्विशततम (222) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
उस समय वेदराशि के ज्ञान से सुशोभित विभाण्डक नामक किन्हीं ब्राह्राण शिरोमणि ने उस अदृश्य देवता से पूछा – ‘हम लोगों में तत्व के विषय में मतभेद उत्पन्न हो गया है; ऐसी स्थिति में आप कौन हैं, जो बात तो कर रहे हैं, किंतु दीखते नहीं हैं’ । (भीष्म जी कहते है- राजन् ! ) तब भगवान् सनत्कुमार ने उनसे कहा – ‘महामुने ! तुम तो पण्डित हो । तुम मुझे सदा एकरूप से ही विचरण करनेवाला पुरातन ऋषि सनत्कुमार समझो । मैं वही हॅू, जिसे वेदवेत्ता पुरूष अक्षय बताते हैं’ । कुन्तीनन्दन ! तब उन महात्मा विभाण्डक ने पुन: उनसे कहा – ‘आदिमुनिप्रवर ! आप अपने स्वरूप का परिचय दीजिये । केवल आप ही हमसे विलक्षण जान पड़ते हैं, आपका स्वरूप हमारे प्रत्यक्ष नहीं है । अथवा यदि आपका भी कोई स्वरूप है तो वह कैसा है ? तब उस अदृश्य आदि-महात्मा गम्भीर स्वर में यह बात कही – ‘मुने ! तुम्हारे न तो कान है, न मुख है, न हाथ है, न पैर है और न पैरों के पंजे ही हैं’ । मुनियों से बातचीत करते हुए विद्वान् विभाण्डक ने अपने विषय में जब यह सत्य देखा तो मन ही मन विचार करके कहा –‘ऋषे ! आप ऐसी बात क्यों कहते हैं ? यदि इसको जाननेवाला कोई न रहे, तब क्या होगा ?’ परंतु इसका उत्तर उन श्रेष्ठ ब्राह्राणों को फिर सुनायी दिया । वे हॅसते हुए आकाश की ओर देखते ही रह गये ।
यह तो बड़े आश्चर्य की बात है’ ऐसा मानकर सभी मुनिश्रेष्ठ दल-बलसहित सुवर्णमय महागिरी मेरूपर सनत्कुमार जी के पास गये । उस पर्वत पर आरूढ़ हो ध्यान का आश्रय ले उन ऋषियों ने पूजनीय देव सनत्कुमार को देखा, जो निरन्तर वेद के पारायण में लगे हुए थे ।। राजेन्द्र ! एक वर्ष पूर्ण होनेपर जब महामुनि सनत्कुमार प्रकृतिस्थ हुए, तब वे ब्राह्राण उन्हें प्रणाम करके खड़े हो गये । ज्ञान से जिनके सारे पाप धुल गये थे, उन भगवान् सनत्कुमार ने वहॉ पधारे हुए ऋषियों से कहा – ‘मुनिगण ! अदृश्य देवता ने जो बात कही है, वह मुझे ज्ञात है; अत: आज आप लोगों के प्रश्नों का उत्तर देना है । मुनिवरो ! आप इच्छानुसार प्रश्न करें । (भीष्मजी कहते हैं-) तब उन ब्राह्राणों ने हाथ जोड़कर परम निर्मल ज्ञाननिधि द्विजश्रेष्ठ महामुनि सनत्कुमार से कहा – ‘कुमार ! हमलोग ज्ञान के भण्डार और सर्वश्रेष्ठ विश्वरूप परमेश्वर का किस प्रकार यजन करें ? । ‘भगवन् ! महामुने ! महानुभाव ! आप हमपर प्रसन्न होइये और हमें ज्ञानरूपी मधुर अमृत का लेशमात्र दान दीजिये; क्योंकि संत अपने शरणागतों को सदा सुख देते हैं । वह जो विश्वरूप पद है, वह क्या है ? यह हमें बताइये’ । उनके इस प्रकार विशेष अनुरोध करनेपर परब्रह्रा परमात्मा में आसक्तचित्त सत्यवेत्ता महात्मा भगवान् सनत्कुमार ने जो कुछ कहा, उसे सुनो । वे अनेक सहस्त्र ऋषियों के बीच में बैठे थे । उन्होंने उनके शुभ निवेदन से सत्स्वरूप आनन्दमय परमेश्वर का इस प्रकार प्रतिपादन प्रारम्भ किया । सनत्कुमार बोले – द्विजोत्तमों ! आप लोगों के बीच में पहले अदृश्य देवता ने जो कुछ कहा था, उनका वह कथन उसी रूप में सत्य है । आप लोगों ने उसे न जानते हुए ही उसके साथ वार्तालाप किया था । सुनिये, वह विश्वरूप परमात्मा सबका परम कारण हैं ।
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