महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 227 श्लोक 32-45
सप्तर्विंशत्यधिकद्विशततम (227) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
मनुष्य बुद्धि बल के सिवा और किसी उपाय से सैकड़ों आघात करके भी आनेवाले अनर्थ को नहीं रोक सकते। कालक्रम से जिन पर आघात होता है स्वयं काल जिन्हें पीड़ा देताहै, उनकी रक्षा कोई नहीं कर सकता । शक्र ! तुम जो अपने को इस परिस्थिति का कर्ता मानते हो, यही तुम्हारे लिये दु:ख की बात है। यदि कार्य करनेवाला पुरूष स्वयं ही कर्ता होता तो उसको उत्पन्न करनेवाला दूसरा कोई कभी न होता । वह दूसरे के द्वारा उत्पन्न किया जाता है; इसलिये काल के सिवा दूसरा कोई कर्ता नहीं है। काल की सहायता पाकर मैंने तुमपर विजय पायी थी और काल के ही सहयोग से अब तुमने मुझे पराजित कर दिया है । काल ही जानेवाले प्राणियों के साथ जाता या उन्हें गमन की शक्ति प्रदान करता है और वही समस्त प्रजाका संहार करता है। इन्द्र ! तुम्हारी बुद्धि साधारण है; इसलिये उसके द्वारा तुम एक-न-एक दिन अवश्य होनेवाले अपने विनाश की बात नहीं समझ पाते । संसार में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो तुम्हें अपने ही पराक्रम से श्रेष्ठता को प्राप्त हुआ मानते और तुम्हें अधिक महत्व देते हैं। किंतु मेरे जैसा पुरूष जो जगत् की प्रवृत्ति को जानता है उन्नति और अवनति का कारण काल प्रारब्ध ही है; ऐसा समझता है, वह तुम्हें महत्व कैसे दे सकता है ? जो काल से पीडि़त है, वह प्राणी शोकग्रस्त, मोहित अथवा भ्रान्त भी हो सकता है । मैं होऊँ या मेरे जैसा दूसरा कोई पुरूष हो । जब काल (प्रारब्ध) से आक्रान्त हो जाता है, तब सदा ही उसकी बुद्धि संकट में पड़कर फटी हुई नौका के समान शिथिल हो जाती है।
इन्द्र ! मैं, तुम या और जो लोग भी देवेश्वर के पद पर प्रतिष्ठित होंगे, वे सब के सब उसी मार्गपर जायॅगे, जिस पर पहले के सैकड़ों इन्द्र जा चुके हैं। यद्यपि आज तुम इस प्रकार दुर्धर्ष हो और अत्यन्त तेज से प्रज्वलित हो रहे हो; किंतु जब समय परिवर्तित होगा, अर्थात् जब तुम्हारा प्रारब्ध खराब होगा, तब मेरी ही भॉति तुम्हें भी काल अपना शिकार बना लेगा इन्द्र पद से भ्रष्ट कर देगा। युग-युग में (प्रत्येक मन्वन्तरमें) इन्द्रों का परिवर्तन होने के कारण अब तक देवताओं के अनेक सहस्त्र इन्द्र काल के गाल में चले गये हैं; अत: काल का उल्लघंन करना किसी के लिये अत्यन्त कठिन है। तुम इस शरीर को पाकर समस्त प्राणियों को जन्म देनेवाले सनातन देव भगवान् ब्रह्राजी की भॉति अपने को बहुत बड़ा मानते हो; किंतु तुम्हारा यह इन्द्रपद आज तक (किसी के लिये भी) अविचल या अनन्त कालतक रहनेवाला नहीं सिद्ध हुआ – इस पर कितने ही आये और चले गये । केवल तुम्हीं अपनी मूढ़ बुद्धि के कारण इसे अपना मानते हो। देवेश्वर ! नाशवान् होने के कारण जो विश्वास के योग्य नहीं हैं, उस राज्यपर तुम विश्वास करते हो और जो अस्थिर है, उसे स्थिर मानते हो; किंतु इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि काल ने जिसके हृदयपर अधिकार कर लिया हो, वह सदा ऐसी ही विपरीत भावना से भावित होता है। तुम मोहवश जिस राजलक्ष्मी को ‘यह मेरी है’ ऐसा समझकर पाना चाहते हो, वह न तुम्हारी है, न हमारी है और न दूसरों की ही है । वह किसी के पास भी सदा स्थिर नहींरहती।
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