महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 140 श्लोक 16-25

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चत्वारिंशदधिकशतकम (140) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: चत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय: श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद

अग्नि और वायु के समान प्रभावशाली उन प्रत्वलित तीखे बाणों द्वारा सात्यकि का शरीर विदीर्ण करके अलम्बुष ने चाँदी के समान चमकने वाले उनके उन चारों घोड़ों को भी चार बाणों से हठात् घायल कर दिया। इस प्रकार अलम्बुष के द्वारा घायल होकर चक्रधारी विष्णु के समान प्रभावशाली और वेगवान् वीर शिनि पौत्र सात्यकि ने अपने उत्तम वेग वाले चार बाणों द्वारा राजा अलम्बुष के चारों घोड़ों को मार डाला। तत्पश्चात् उनके सारथि का भी मस्तक काअकर कालाग्नि के समान तेजस्वी भल्ल द्वारा पूर्ण चन्द्रमा के समान कानित से प्रकाशित होने वाले उनके कुण्डल मण्डित मुख मण्डल को भी धडत्र से काट गिराया। राजन् ! शत्रुओं को मथ डालने वाले यदुकुल तिलक वीर सात्यकि के इस प्रकार युद्ध सथल में राजा के पुत्र और पौत्र अलम्बुष को मारकर आपकी सेना को स्तब्ध करके फिर अर्जुन का ही अनुसरण किया। उस समय गोदुग्ध, कुन्दकुसुम, चन्द्रमा तथा हिम के समान कान्ति वाले सिंधु देशीय संशिक्षित सुन्दर घोड़े, जो सोने की जाली से आवृत्त थे, पुरुषसिंह सात्यकि जहाँ - जहाँ जाना चाहते, वहीँ - वहाँ उन्हें ले जाते थे।
अजमीढ़ वंशी भारतवंशी भरत नन्दन ! इस र्पकार जैसे वायु मेघों की घटा को छिन्न - भिन्न करती रहती है, वैसे ही बारंबार बाणों द्वारा कौरवउ सेनाओं का संहार करते और शत्रुओं के बीचउ में विचरते हुए वृष्णि वीर सात्यकि को वहाँ आया हुआ देख योद्धाओं में प्रणान आपके पुत्र दुःशासन को अगुआ बनाकर आपके बहुत से पुत्र तथा आपके पक्ष के अन्य योद्धा भी शीघ्रता पूर्वक एक साथ ही उन पर टूट पड़े। वे सभी बड़ी - बड़ी सेनाओं का आक्रमण सहने में समर्थ थे। उन सबने युद्ध स्थल में सात्यकि को चारों ओर से घेरकर उन पर प्रहार आरम्भ कर दिया। सात्वत शिरोमणि वीर सात्यकि भी अपने बाणों के समूह से उन सबको आगे बढ़ने से रोक दिया। अजमीढ़ नन्दन ! उन सबको रोककर शत्रुघाती शिनि पौत्र सात्यकि ने तुरंत ही धनुष उठाकर अग्नि के समान तेजस्वी बाणों द्वारा दुःशासन के घोड़ों को मार डाला। उस समय श्रीकृष्ण और अर्जुन पुरुषों में प्रधान वीर सात्यकि को उस युद्ध भूमि में उपस्थित देख बड़े प्रसन्न हुए।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में अलम्बुष वध विषयक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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