गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 268

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:१८, २१ सितम्बर २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2.भक्ति -ज्ञान -समन्वय

जिन लोगों ने राजस अहंकार के पाप को अपनी प्रकृति से हटा दिया है और जो भगवान् की ओर बढ़ रहे हैं उनमें से गीता ने चार प्रकार के भक्त गिनाए हैं। कोई तो संसार के दुख - शोक से बचने के लिये उनका आश्रय ढूढ़ते हैं, वे ‘‘ आर्त” हैं। कोई उनका आश्रय सांसरिक कल्याण के लिये ढूढ़ते हैं, वे ‘‘ अर्थार्थी ” हैं। कोई ज्ञान की इच्छा से उनके समीप जाते हैं, वे ‘‘ जिज्ञासु ” हैं। और , कोई ऐसे भी हैं जो उन्हें जानकर उन्हें पूजते हैं, वे ‘‘ ज्ञानी ” है। ये सभी भक्त गीता को स्वीकार हैं , पर उसकी पूर्ण सम्मति की छाप तो अंतिम प्रकार के भक्त पर ही लगी हैं भक्ति के ये सभी प्रकार निश्चय ही उत्तम हैं, परंतु ज्ञानयुक्त भक्ति ही इन सबमें विशेष है। हम कह सकते हैं कि भक्ति के ये चार प्रकार क्रमशः ये हैं प्रथम, प्राणगत भावमय प्रकृति की भक्ति है[१], द्वितीय, व्यावहारिक गतिशील, कर्म, कर्म - प्रधान प्रकृति की , तृतीया, तर्क - प्रधान बौद्धिक प्रकृति की और चतुर्थ, उस परम अंतज्ञानमयी सत्ता की भक्ति जो शेष सारी प्रकृति को भगवान् के साथ एकत्व में समेट लेती है।
भक्ति के अंतिम प्रकार को छोड़ अन्य जितने प्रकार हैं वे वस्तुतः प्रारंभिक प्रयास ही माने जा सकते हैं। क्योंकि गीता स्वयं ही कहती है कि अनेकों जन्म बिताने के बाद कोई समग्र ज्ञान को पाकर तथा जन्म - जन्म उसे अपने जीवन में उतारने का साधन करके अंत में परम को प्राप्त होता है। क्योंकि , यह जो कुछ है सब भगवान् है यह ज्ञान पाना बड़ा कठिन है और वह महात्मा पृथ्वी पर कोई विरला ही होता है जो ‘ सर्ववित् ’ हो - सब कुछ के अंदर भगवान् को देख सकता हो और इस सर्वसंग्राहक ज्ञान की वैसी ही व्यापक शक्ति से अपनी संपूर्ण सत्ता और अपनी प्रकृति की सब वृत्तियों के साथ सर्वभावेन, उनमें प्रवेश कर सकता हो।अब यह शंका उठ सकती है कि जो भक्ति केवल सांसारिक वरदान पाने के लिये भगवान् को ढूंढ़ती है अथवा जो दुःख - शोक के लिये उनका आश्रय लेती है और भगवान् के लिये ही भगवान् को नहीं चाहती वह उदार कैसे कहला सकती है? क्या ऐसी भक्ति में अहंकारिता , दुर्बलता और वासना - कामना ही प्रधान नहीं रहती , इसलिये क्या इसे भी निम्न प्रकृति की ही चीज नहीं समझना चाहिय?


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उत्तरकालीन भावविभोर प्रेम की भक्ति मूलतः चैत्य प्रकृति की ही वस्तु है। केवल इसके निचले रूप और कोई - कोई बाह्म भाव ही प्राणगत भावुकता के द्योतक हैं।

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध