गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 267
इस योग में जीव निश्चय ही अपनी निव्र्यक्तिक अक्षर आत्मसत्ता को प्राप्त कर अपने निम्न व्यक्तित्व से मुक्त हो जाता है ; फिर भी वह कर्म करता है और सारा कर्म क्षर प्रकृति में स्थित समष्टि - जीव का होता है। अत्यधिक नैष्कम्र्य की कल्पना के सोधन के लिये यदि हम परम पुरूष के प्रति यज्ञ के भाव को न ले आवें तो कर्म को कोई विजातीय पदार्थ मानना होगा, यह समझना होगा कि यह गुणों के खेल का अवशेष है- इसके पीछे कोई दिव्य सत्य नहीं , समझना होगा कि अहंकार या अहंभाव का ही यह रहा - सहा नाशोन्मुख अंतिम रूप है, निम्न प्रकृति की गति का ही पहले से चला आया हुआ वेग मात्र है जिसके लिये हम जिम्मेदार नहीं, क्योंकि हमारा ज्ञान इसे अस्वीकार करता और इससे निकलकर विशुद्ध नैष्कम्र्य को प्राप्त होना चाहता है। परंतु एकमेव आत्मा की प्रशांत ब्राह्मी स्थिति को परमेश्वर के प्रीत्यर्थ किये जाने वाले प्रकृति के कर्मो के साथ एक करके, इस दोहरी कुंजी की सहायता से हम निम्नतर अहंभावमय व्यक्तित्व से मुक्त होकर अपने सच्चे आध्यात्मिक व्यक्तित्व के शुद्ध स्वरूप में विर्द्धत होते हैं। तब हम निम्नतर प्रकृति में रहने वाला बद्ध और अज्ञ अहं नहीं रहा जाते , बल्कि पराप्रकृति में रहने वाला मुक्त जीव बन जाते हैं।
तब हम इस ज्ञान में नहीं रहते कि अक्षर निव्र्यक्तिक ब्रह्म और यह क्षर बहुविध प्रकृति दो परस्पर - विरोधी सत्ताएं हैं, बल्कि हम उन पुरूषोत्तम के साक्षात् समालिंगन को प्राप्त हो जाते हैं जो हमारे स्वरूप की इन दोनों ही शक्तियों द्वारा एक साथ उपलब्ध होते हैं। ये तीनों ही आत्मा हैं और जो देखने में परस्पर - विरूद्ध से लगते हैं उस तीसरे के आमने सामने के पाश्र्वमात्र हैं जो इन दोनों से उत्तम हैं। भगवान् आगे चलकर स्वयं ही कहते हैं ‘‘ क्षर और अक्षर दो पुरूष हैं , पर एक अन्य पुरूष भी है जो उत्त्म है , जिसे परमात्मा कहते हैं, जो अव्यय ईश्वर है और तीनों लोकों में प्रवेश कर उनका पालन करता है। मैं ही क्षर से अतीत और अक्षर से भी उत्तम वह पुरूषोत्तम हूं। जो मुझे पुरूषोत्तम जानता है , वही संपूर्ण ज्ञान और संपूर्ण भाव के साथ मेरी भक्ति करता है”।[१]अब गीता में संपूर्ण ज्ञान और संपूर्ण आत्मसमर्पणवाली इस भक्ति का ही आगे विस्तार होगा।यह बात ध्यान में रहे कि गीता शिष्य से जिस भक्ति की अपेक्षा करती है वह ज्ञानयुक्त भक्ति है और भक्ति के जो अन्य प्रकार हैं उन्हें अच्छा समझते हुए भी ज्ञानयुक्त भक्ति की अपेक्षा नीचा ही मानती है; भक्ति के उन अन्य प्रकारों से लाभ हो सकता है , पर जीव के परमोत्कर्ष में वे गीता के अनन्य लक्ष्य नहीं हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 51.16 – 19