गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 274

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:५१, २१ सितम्बर २०१५ का अवतरण ('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म,...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर

मृत्यु - संसार से निकलकर वे उस परब्रह्मपद को उतनी ही सफलता के साथ पाते हैं जितनी सफलता से वे लोग जो अपने पृथक् व्यष्टिभाव को निरहं अक्षर ब्रह्म में घुला - मिला देते हैं। इस प्रकार गीता का यह महत्वपूर्ण और निश्चयात्मक सप्तम अध्याय समाप्त होता है।यहां कुछ ऐसे पारिभाषिक शब्द आये हैं जो संक्षेप से जगद्रूप में भागवत आविर्भाव के प्रधान मौलिक सत्यों का परिचय कराते हैं। वहां इसके सभी कारण और कार्य रूप मौजूद हैं, वह सारी चीज मौजूद है जिसका जीव को संपूर्ण आत्मज्ञान की ओर लौटने में काम पड़ता है। सबसे पहले तद्ब्रह्म; दूसरा अध्यात्म अथात् प्रकृति में स्थित आत्मतत्व; इसके बाद हैं - ‘ अधिभूत ’ और ‘ अधिदैव ’ अर्थात् आत्मसत्ता के ‘ इर्द ’ और ‘अहं’ पदार्थ ; अंत में है अधियज्ञ अर्थात् विश्वकर्म और यज्ञ का गूढ़ तत्व। यहां श्रीकृष्ण के कहने का आशय यह है कि इन सबके ऊपर जो ‘मैं‘ हूं ‘ पुरूषोत्तम ’ , उस मुझको इन सबमें होकर और इन सबके परस्पर - संबंधों के द्वारा ढूंढ़ना और जानना होगा - यही उस मानवचैतन्य के लिये एकमात्र सर्वांगपूर्ण पथ है जो मेरे पास लौट आना चाहता है।
परंतु शुरू में इन पारभिाषिक शब्दों से यह बात सर्वथा स्पष्ट नहीं होती , इनसे भिन्न - भिन्न अर्थ निकल सकते हैं; इसलिये इस प्रसंग में इनके वास्तवकि अभिप्राय को स्पष्ट करा लेने के लिये शिष्य अर्जुन जो पश्न किया उसका उत्तर भगवान् अति संक्षेप से देते हैं - गीता ने कहीं भी केवल दार्शनिक दृष्टि से किसी बात की व्याख्या बहुत विस्तार से नहीं की है, वह उतनी ही बात बतलाती है और इस ढंग से बतलाती है कि जीव उस तत्व को ग्रहण मात्र कर ले और स्वानुभव की ओर आगे बढ़े। ‘ तद्ब्रह्म ’ पद उपनिषदों में भूतभाव के विपरीत स्वतःसिद्ध सद्वस्तु के लिये बारंबार प्रयुक्त हुआ है, गीता में यहां इस पद से अर्थात उस अक्षर ब्रह्मसत्ता का अभिप्राय मालूम होता है जो भगवान् का परम आत्मप्रकाश है और जिसकी अपरिवर्तनीय सनातनी सत्ता के ऊपर यह चल और विकसनशील जगत ठहरा हुआ है। अध्यात्म से अभिप्राय है ‘ स्वभाव ’ अथात् वह चीज जो परा प्रकृति मे जीव का आत्मगत भाव और विधान हैं गीता कहती है कि ‘ कर्म ’ ‘ विसर्ग ’ का नाम है अर्थात् उस सृष्टि - प्रेरणा और शक्ति का जो इस आदि मूलगत स्वभाव से सब चीजों को बाहर छोड़ती है और उस स्वभाव के ही प्रभाव से प्रकृति में सब भूतों की उत्पत्ति , सृष्टि और पूर्णता साधित करती है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध