महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-12

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त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयोदश अध्याय: 13 भाग-12 का हिन्दी अनुवाद

मेरा जो परम गोपनीय, शाश्‍वत, ध्रुव एवं अव्‍यय पद है, उसका ज्ञान भी तुम्‍हें समयानुसार हो सकता है। इस प्रकार मैं नारायण देव एवं हरि नाम से प्रसिद्ध परमेश्‍वर परम गोपनीय माना गया हूं। गरुड़ ! जो लौकिक अभ्‍युदय में आसक्‍त हैं, वे मेरे उसस्‍वरूप को नहीं जान सकते। जो कर्मों के आरम्‍भ का मार्ग छोड़ चुके हैं, नमस्‍कार से दूर हो गये हैं और कामनाओं बन्‍धन से मुक्‍त हैं, वे यतिजन उन सनातन परमात्‍मा परब्रह्मा को प्राप्‍त होते है। निष्‍पाप पक्षिराज गरुड़ ! इस प्रकार तुमने मेरे स्‍थूल स्‍वरूप का दर्शन किया है । परंतु तुम्‍हारे सिवा दूसरा कोई इस स्‍वरूप को भी नहीं जानता। तुम्‍हारी बुद्धि का नाश न हो - यही सर्वोत्‍तम गति है । तुम नित्‍य -निरंतर मेरी भक्ति में लगे रहो । इससे तुम्‍हें स्‍वरूप का यथार्थ बोध हो जायेगा। यह सब तुम्‍हें बताया गया। यह देवताओं और मनुष्‍यों के लिये भी रहस्‍य की बात है । यही परम कल्‍याण है। तुम इसे मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरूषों का मार्ग समझो। गरुड़ कहते हैं - ऋषियों ! ऐसा कहकर वे भगवान वही अन्‍तर्धान हो गये ।
वे महायोगी तथा आत्‍मगतिरूप परमेश्‍वर मेरे देखते-देखते अदृश्‍य हो गये। इस प्रकार मैंने पूर्वकाल में अप्रमेय महात्‍मा अच्‍युत की महिमा का साक्षात्‍कार किया था। अद्भुत कर्मा परम बुद्धिमान् भगवान श्रीहरि की यह सारी लीला जो मैंने प्रत्‍यक्ष देखकर अनुभव की है, आपको बता दी। ऋषियों ने कहा - अहो ! आपने यह बड़ा अद्भुत एवं महत्‍वपूर्ण आख्‍यान सुनाया। यह परम पवित्र प्रसंग यश, आयु एवं स्‍वर्ग की प्राप्ति कराने वाला तथा महान मंगलकारी है। परंतप गरुड़ जी ! यह पवित्र विषय देवताओं के लिये भी गुहृय रहस्‍य है । यही ज्ञानियों का ज्ञेय है ओर यही सर्वोत्‍तम गति है। जो विद्वान प्रत्‍येक पर्व के अवसर पर इस कथा को सुनायेगो वह देवर्षियों द्वारा प्रशंसित मुण्‍य-लोकों को प्राप्‍त होगा। जो श्राद्ध के समय पवित्रभाव से ब्राह्माणों को यह प्रसंग सुनायेगा, स श्राद्ध में राक्षसों और असुरों को भाग नहीं मिलेगा। जो दोषदृष्टि से रहित हो क्रोध को जीतकर समस्‍त प्राणियों के हित में तत्‍पर हो सदा योगयुक्‍त रहकर इसका पाठ करेगा वह भगवान विष्‍णु के लोक में जायगा। इसका पाठ करने वाला ब्रह्माण वेदों का पारंगत विद्वान होगा। क्षत्रिय को इसका पाठ करने से युद्ध में विजय की प्राप्ति होगी । वैश्‍य धन-धान्‍य से सम्‍पन्‍न और शूद्र सुखी होगा।
राजन् ! तदनन्‍तर वे सम्‍पूर्ण महर्षि विनतानन्‍दन गरुड़ की पूजा करके अपने-अपने आश्रम को चले गये और वहां शम-दम के साधन में तत्‍पर हो गये। धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ महाराज युधिष्ठिर ! जिनका मन अपने वश में नहीं है, उन स्‍थूलदर्शी पुरूर्षों के लिये भगवान श्रीहरि के तत्‍व का ज्ञान होना अत्‍यन्‍त कठिन है । यह धर्मसम्‍मत श्रुति है । परंतप ! इसे ब्रह्माजी ने आश्‍चर्यचकित हुए देवताओं को सुनाया था। तात ! तत्‍वज्ञानी वसुओं ने मेरी माता गंगाजी के निकट मुझसे यह कथा कही थी और अब तुमसे मैंने कही है ।। जो अग्निहोत्र में तत्‍पर, जप-यज्ञ में संलग्‍न तथा कामनाओं के बन्‍धन से मुक्‍त होते है, वे अविनाशी परमात्‍मा के स्‍वरूप को प्राप्‍त हो जाते हैं। जो क्रियात्‍मक यज्ञों का परित्‍याग करके जप और होम में तत्‍पर हो मन-ही-मन भगवान विष्‍णु का ध्‍यान करते हैं वे परम गति को प्राप्‍त होते हैं। भरतनन्‍दन ! जब निश्चित बुद्धिवाले पुरूष परमात्‍म-तत्‍व को जानकर परम गति को प्राप्‍त हो जाते हैं, वही परम मोक्ष या मोक्षद्वार कहलाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व में लोकयात्रा के निर्वाह की विधि का वर्णन विषयक तेरहवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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