महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-11

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त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयोदश अध्याय: 13 भाग-11 का हिन्दी अनुवाद

जिनकी बुद्धि सत्‍वगुण से युक्‍त है और केवल आत्‍मतत्‍व निश्‍चय करके उसी के चिन्‍तन में लगी हुई है, वे अपने आत्‍मरूप अविनाशी परमात्‍मा का दर्शन करते हैं। उन्‍हीं का समस्‍त प्राणियों के प्रति अहिंसा भाव होता है, उन्‍हीं में 'सरलता' नामक सद्गुण की स्थित होती है और उन्‍हीं गुणों में स्थित हुआ जो चित्‍त को मुझे परमात्‍मा में भली भांति समाहित कर देता है वह मुझ अजन्‍मा परमेश्‍वर को प्राप्‍त होता है। यह जो परम गोपनीय एवं अत्‍यंत अद्भूत आख्‍यान है, इसे पूर्णत: यत्‍नपूर्वक यथावत रूप से श्रवण करो। जो अग्निहोत्र में संलग्‍न और जप-यज्ञपरायण होते है, जो निरंतर मेरी उपासना करते रहते हैं, उन्‍हीं का तुमने प्रत्‍यक्ष दर्शन किया है। जो शास्‍त्रोक्‍त विधि के ज्ञाता होकर अनासक्‍त भाव से सत्‍कर्म करते हैं, कभी शास्‍त्रविपरीत- असत कर्म में नहीं लगते, उनके द्वारा ही मैं जाना जा सकता हूं। मेरा जो अविनाशी परम तत्‍व है, उसे भी वे ही जान सकते है। इसलिये विशुद्ध ज्ञान के द्वारा जिसका चित्‍त प्रसन्‍न (निर्मल) है, जो आत्‍मत्‍व का ज्ञाता और पवित्र है, वह ज्ञानी पुरूष ही उस ब्रह्मा को प्राप्‍त होता है, जहां जाकर कोई शोक में नहीं पड़ता। जो शुद्ध कुल में उत्‍पन्‍न हैं, जो श्रेष्‍ठ द्विज श्रद्धायुक्‍त चित्‍त से मेरा भजन करते हैं, वे मरी भक्ति द्वारा परम गति को प्राप्‍त होते हैं। जो बुद्धि के लिये परम गहृय रहस्‍य है, जो किसी आकृति से गृहीत नहीं होता- अनुभव में नहीं आता उस सूक्ष्‍म परब्रह्मा का तत्‍वदर्शी यति ब्रह्माण साक्षात्‍कार कर लेते हैं। वहां यह वायु नहीं चलती, ग्रहों और नक्षत्रों की पहुंच नहीं होती तथा जल, पृथ्‍वी, आकाश और मन की भी गति नहीं हो पाती है। विहंगम ! उसी ब्रह्मा से सारी वस्‍तुएं उत्‍पन्‍न होती हैं । वह निर्मल एवं सर्वव्‍यापी परमात्‍मा उन सबके द्वारा ही सबको उत्‍पन्‍न करने में समर्थ है।
अनघ ! तुमने जो मेरा यह स्‍थूल रूप देखा है, यही मेरे सूक्ष्‍म स्‍वरूप में प्रवेश करने का द्वार है । समस्‍त कार्यों का कारण मैं ही हूं। अमित पराक्रमी गरुड़ ! इसीलिये तुमने उस सरोवर में मेरा दर्शन किया है। यज्ञ के ज्ञाता मुझे यज्ञ कहते हैं । वेदों के विद्वान मुझे ही वेद बताते हैं और मुनि भी मुझे ही जप-यज्ञ कहते हैं। मैं ही वक्‍ता, मनन करने वाला, रस लेने वाला, सूंघनेवाला, देखने और दिखाने वाला, समझने और समझाने वाला तथा जाने और सुनने वाला चेतन आत्‍मा हूं। मेरा ही यजन करके यजमान स्‍वर्ग में आते और महान पद पाते हैं। इसी प्रकार जो अनासक्‍त हृदय से मुझे ही जान लेते है, वे मुझ परमात्‍मा को ही प्राप्‍त होते हैं। मैं ब्राह्माणों का तेज हूं और ब्रह्माण मेरे तेज हैं। मेरे तेजसे जो शरीर प्रकट हुआ है, उसी को तुम अग्नि समझो। मैं ही शरीर में प्राणों का रक्षक हूं । मैं ही योगियों का ईश्‍वर हूं । सांख्‍यों का जो यह प्रधान तत्‍व है, वह भी मैं ही हूं । मुझमें ही यह सम्‍पूर्ण जगत स्थित है। धर्म, अर्थ, कार्म, मोक्ष सरलता, जप, सत्‍वगुण, तमोगुण, रजोगुण तथा कर्मजनित जन्‍म-मरण - सब मेरे ही स्‍वरूप हैं। उस समय तुमने मुझ सनातन पुरूष का उस रूप में दर्शन किया था । उससे भी उत्‍कृष्‍ट जो मेरा स्‍वरूप है, उसे तुम समयानुसार जान सकते हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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