गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 146

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गीता-प्रबंध
15.अवतार की संभावना और हेतु

फिर, यह भी नहीं है कि भगवान् बहुत दूर किसी स्वर्ग में विराजे इस जगत् पर राज करते हों, बल्कि उनका राज तो उनकी अपनी निगूढ़ सर्वव्द्धयापकता से हुआ करता है; प्रत्येक परिच्छिन्न सांत गुणकर्म अपरिच्छिन्न अनंत शक्ति का ही एक कार्य है, किसी पृथक् परिच्छिन्न स्वयंभू क्रिया - शक्ति का नहीं जो अपने ही बल से कोई परिश्रम कर रही हो; मन - बुद्धि के संकल्प और ज्ञानी की प्रत्येक परिच्छिन्न क्रिया में हम अपरिच्छन्न अखिल संकल्प और अखिल ज्ञान के किसी कर्म का आश्रय रूप से होना ढूंढकर देख सकते हैं, भगवान् का राज ऐसा राज नहीं है जहां का शासक अनुपस्थित रहता हो, विदेशी हो या बाहरी हो; वे इसलिये सबका शासन करते हैं कि वे सबका अतिक्रमण करते हैं, साथ ही इसलिये भी कि वे सब क्रियओं मे स्वयं रहते हैं। और वे ही उन क्रियाओं के एकमात्र प्राण और आत्मा हैं। इसलिये अवतार की संभावना के विरूद्ध जो - जो आक्षेप हमारी तर्क - बुद्धि में आया करते हैं वे सिद्धांतः टिक नहीं सकते क्योंकि यह सब हमारे बौद्धिक तर्क द्वारा उपस्थित किया हुआ एक ऐसा व्यर्थ का विभेद है जिसे जगत् का सारा व्यापार और उसकी सारी वास्तविकता दोनों ही प्रतिक्षण खंडित और अप्रमाणित कर रहे हैं। परंतु अवतार की संभावना के प्रश्न को छोड़कर एक और प्रश्न है और वह यह है कि क्या भगवान् सचमुच इस प्रकार कर्म करते हैं , क्या सचमुच भागवत चेतना परदे से बाहर निकलकर इस सांत , मनोमय, अन्नमय, परिच्छिन्न, अपूर्ण बाह्म जगत् में सीधे कर्म करती है?
यह सांत बाह्म परिच्छिन्न रूप आखिर क्या है - यह अनंत के ही विभिन्न चिद्भावों के सामने अनंत की अपनी अभिव्यक्तियों का एक सुनिश्चित बाह्म रूप, उनका एक बाहरी मूल्य है; प्रत्येक सांत बाह्म रूप का वास्तवितक मूल्य तो यह है कि वह बाह्म प्रकृति के कर्मो और सांसारिक आत्म - अभिव्यक्त् में चाहे जैसा हो पर अपनी बाह्म आत्म - सत्ता में अनंत ही है। यदि हम अधिक गौर से देखें तो मनुष्य सर्वथा अकेला नहीं है, वह सर्वथा पृथक रहने वाला स्वतः स्थित व्यक्ति नहीं है , बल्कि किसी मतिविशेष और शरीर विशेष में स्वयं मानवजाति है; और स्वयं मानवजाति भी स्वतःस्थित सबसे पृथक जाति नहीं है, बल्कि भूमा विश्पति ही मानवजाति के रूप में मूर्तिमान हैं; इस रूप में वे कतिपय संभावनाओं को क्रियान्वित करते हैं, आधुनिक भाषा में कहें तो अपनी अभिव्यक्ति की शक्तियों को प्रस्फुटित और विकसित करते हैं, पर जो कुछ विकसित होकर आता है वह स्वयं अनंत होता है, स्वयं आत्मा होता है। आत्मा से हमारा अभिप्राय है उस स्वयभू सत्ता से जिसमे चेतना की अनंत शक्ति और अपार आनंद निहित हैं; आत्मा यही है और यदि यह न हो तो कुछ भी नहीं है अथवा कम - से - कम मनुष्य और जगत् के साथ उसका कुछ भी संबंध नहीं है और इसलिये मुनष्य और जगत् का उससे कोई संबंध नहीं है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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